सहज गीता -रामसुखदास पृ. 34

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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छठा अध्याय

(आत्म संयम योग)

जिसने अपने-आप पर विजय कर ली है अर्थात् जो किसी भी प्राणी-पदार्थ के साथ अपना संबंध नहीं मानता, जो अनुकूलता प्रतिकूलता, सुख-दुख तथा मान-अपमान के प्राप्त होने पर निर्विकार, सम रहता है, वह परमात्मा को प्राप्त हो चुका है- ऐसा मानना चाहिए। जो कर्मयोगी ‘ज्ञान’ (कर्म करने की जानकारी) और ‘विज्ञान’ (कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में सम रहना)- दोनों से तृप्त है, जो कूट (अहरन)- की तरह ज्यों का त्यों निर्विकार है, जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है और जो मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा स्वर्ण को समान दृष्टि से (नाशवान्) देखता है, वह योग (समता)- में स्थित कहा जाता है। सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य (दूसरों का अहित करने वाले) और संबंधियों में तथा अच्छे आचरण करने वाले और पाप करने वाले- इन सबमें जिसकी समबुद्धि अर्थात् समान हित का भाव होता है, वह मनुष्य सबसे श्रेष्ठ है।
जो समता (समबुद्धि) कर्मयोग से प्राप्त होती है, वही समता ध्यानयोग से भी प्राप्त होती है। जो अपने सुख के लिए किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता, जिसमें सुख की इच्छा नहीं है और जिसने अंतःकरणसहित शरीर को वश में कर रखा है, ऐसा ध्यानयोगी साधक एकान्त में बैठकर मन को निरंतर परमात्मा में लगाये। इसकी विधि इस प्रकार है- शुद्ध भूमि पर लकड़ी आदि की चौकी रखकर उस पर पहले कुश बिछा दे, उसके ऊपर मृगछाला बिछा दे, फिर उसके ऊपर कोमल सूती कपड़ा बिछा दे। वह चौकी न अत्यंत ऊँची हो तथा न अत्यंत नीची हो और हिलने डुलने वाली भी न हो। उस पर बैठकर साधक चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए अपने मन को एकाग्र करके अंतःकरण की शुद्धि के लिए (केवल परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य रखकर) ध्यानयोग का अभ्यास करे। ध्यान करते समय साधक अपना शरीर, सिर और गला- तीनों को सीधा तथा अचल रखे। वह इधर-उधर न देखकर केवल अपनी नासिका के अग्रभाग को देखे और मूर्ति की तरह स्थिर होकर बैठे।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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