सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
छठा अध्याय(आत्म संयम योग)जिसने अपने-आप पर विजय कर ली है अर्थात् जो किसी भी प्राणी-पदार्थ के साथ अपना संबंध नहीं मानता, जो अनुकूलता प्रतिकूलता, सुख-दुख तथा मान-अपमान के प्राप्त होने पर निर्विकार, सम रहता है, वह परमात्मा को प्राप्त हो चुका है- ऐसा मानना चाहिए। जो कर्मयोगी ‘ज्ञान’ (कर्म करने की जानकारी) और ‘विज्ञान’ (कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में सम रहना)- दोनों से तृप्त है, जो कूट (अहरन)- की तरह ज्यों का त्यों निर्विकार है, जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है और जो मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा स्वर्ण को समान दृष्टि से (नाशवान्) देखता है, वह योग (समता)- में स्थित कहा जाता है। सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य (दूसरों का अहित करने वाले) और संबंधियों में तथा अच्छे आचरण करने वाले और पाप करने वाले- इन सबमें जिसकी समबुद्धि अर्थात् समान हित का भाव होता है, वह मनुष्य सबसे श्रेष्ठ है। |
संबंधित लेख
अध्याय | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज