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छठा अध्याय
(आत्म संयम योग)
(सगुण-साकार के ध्यान का वर्णन-) जिसका अंतःकरण शान्त, राग द्वेषरहित है, जो भयरहित है, जिसका जीवन ब्रह्मचारी की तरह संयत और नियत है, जो निरंतर सावधान रहता है, ऐसा ध्यानयोगी अपने मन को संसार से हटाकर मुझमें लगाते हुए केवल मेरे परायण होकर बैठे। इस प्रकार मन को सदा मुझमें लगाते हुए वश में किए हुए मनवाला ध्यानयोगी मुझमें रहने वाली परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है, जिसे प्राप्त होने पर फिर कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता।
हे अर्जुन! यह ध्यानयोग न तो अधिक खाने वाले का और न बिलकुल न खाने वाले का तथा न अधिक सोने वाले का और न बिलकुल न सोने वाले का ही सिद्ध होता है। दुःखों का नाश करने वाला यह योग तो यथायोग्य आहार और विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का तथा यथायोग्य सोने और जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
(स्वरूप के ध्यान का वर्णन-) संसार के चिन्तन से सर्वथा रहित चित्त जब अपने स्वरूप में तल्लीन हो जाता है और जब वह संपूर्ण पदार्थों से निःस्पृह हो जाता है अर्थात् उसे किसी भी पदार्थ की परवाह नहीं रहती, तब वह वास्तविक ‘योगी’ कहा जाता है। जैसे सर्वथा स्पन्दनरहित वायु के स्थान में रखे हुए दीपक की लौ थोड़ी सी भी हिलती डुलती नहीं, ऐसे ही जो योग का अभ्यास करता है और जिसने चित्त को वश में कर लिया है, उस ध्यानयोगी का चित्त एक स्वरूप में ही स्थिर रहता है, एक स्वरूप के सिवाय कुछ भी चिंतन नहीं करता। जिस समय ध्यानयोगी का चित्त निरुद्ध अवस्था (निर्बीज समाधि)- से भी उपराम हो जाता है अर्थात् निर्बीज समाधि का भी सुख नहीं लेता, उस समय वह अपने स्वरूप में अपने आपका अनुभव करता हुआ अपने आपमें संतुष्ट रहता है। ध्यानयोगी अपने द्वारा अपने आप में जिस सुख का अनुभव करता है, उस सुख से बढ़कर दूसरा कोई सुख संसार में नही है। वह सुख इंद्रियों के अधीन नहीं है और उस सुख में बुद्धि भी जाग्रत रहती है।
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