श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अठारहवाँ अध्याय
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥1॥
अर्जुन बोले- महाबाहो! हृषीकेश! केशिनिषूदन! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ।।1।।
त्यागसन्न्यासौ हि मोक्षसाधनतया विहितौ-‘न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनै के अमृतत्त्वमानुशुः’[1] ‘वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः सन्नायास योगोद्यतयः शुद्धसत्त्वाः। ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे।।’[2] इत्यादिषु। अस्य सन्न्यासस्य त्यागस्य च तत्त्वं याथात्म्यं पृथग् वेदितुम् इच्छामि। अयम् अभिप्रायः-किम् एतौ सन्न्यास त्यागशब्दौ पृथगर्थौ, उत एकार्थी एव? यदा पृथगर्थौ, तदा अनयोः पृथक्त्वेन स्वरूपं वेदितुम् इच्छामि। एकत्वे अपि तस्य स्वरूपं वक्तव्यम् इति।।1।।
‘कुछ लोग कर्म से, प्रजा से और धन से नहीं, किन्तु केवल त्याग से अमृतत्त्व को प्राप्त हुए।’ ‘वेदान्तविज्ञान के द्वारा जिनको परमार्थवस्तु दृढ़ निश्चय हो चुका है, जिनका अन्तःकरण संन्यास योग के द्वारा शुद्ध हो गया है, वे सब मृत्यु के पश्चात् ब्रह्मलोक में जाकर परम अमृतरूप होकर सर्वथा मुक्त हो जाते हैं।’ इत्यादि श्रुतियों में त्याग और संन्यास- ये दोनों मोक्ष के साधन बतलाये गये हैं। इन त्याग और संन्यास का तत्त्व- यथार्थ स्वरूप मैं विभाग पूर्वक जानना चाहता हूँ। अभिप्राय यह है कि क्या वे संन्यास और त्याग शब्द पृथक्-पृथक् अर्थवाले हैं, या दोनों का एक ही अर्थ है? यदि पृथक्-पृथक अर्थवाले हैं तो मैं उनका स्वरूप पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ। यदि दोनों की एकता है, तो भी उनका स्वरूप बतलाना चाहिये।।1।।
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