श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
सतरहवाँ अध्याय
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥18॥
जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिये तथा दम्भ के साथ किया जाता है, वह चंचल और अस्थिर (तप) यहाँ राजस कहलाता है।।18।।
मनसा आदरः सत्कारः, वाचा प्रशंसा मानम्, शारीरो नमस्कारादिः पूजा। फलाभिसन्धिपूर्वकं सत्काराद्यर्थ च दम्भेन हेतुना यत् तपः क्रियते तद् इह राजसं प्रोक्तम्; स्वर्गादिफलसाधनत्वेनास्थिरत्वात् चलम् अधु्रवम्; चलत्वं पातभयेन चलनहेतुत्वम्; अधु्रवत्वं क्षयिष्णुत्वम्।।18।।
मन से आदर करने का नाम सत्कार है, वाणी से प्रशंसा करने का नाम मान है और शरीर से नमस्कारादि करना पूजा है। जो तप फलाभिसन्धिपूर्वक (इन) सत्कारादि के लिये और दम्भ के कारण किया जाता है, वह चंचल और अस्थिर तप यहाँ राजस कहा गया है। क्योंकि वह स्वर्गादि फल का साधन होने के कारण स्थिर रहने वाला नहीं है, अतः चल और अध्रुव है। गिरने का भय रहने से वह चंचलता का हेतु है, इससे उसको चल कहा गया है और उसका क्षयशील होना ही उसकी अस्थिरता है।।18।।
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