श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
सतरहवाँ अध्याय
अथ प्रकृतम् एव शास्त्रीयेषु यज्ञादिषु गुणतो विशेषं प्रपञ्चयति; तत्र अपि आहारमूलत्वात् सत्त्वादि वृद्धेः, आहारत्रेविध्यं प्रथमम् उच्यते।
अब, शास्त्रविहित यज्ञों में गुणों के कारण होने वाले भेद, जिनका कि प्रकरण चल रहा था, विस्तारपूर्वक बतलाये जाते हैं। उनमें भी सत्त्वगुण आदि की वृद्धि में आहार प्रधान कारण है, इसलिये पहले आहर के तीन भेद बतलाते हैं।
‘अन्नमयं हि सोम्य मनः’ [1] ‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः’ [2] इति हि श्रूयते।
क्योंकि श्रुति में भी यह कहा है कि ‘हे सोम्य! यह मन अन्नमय ही है।’ ‘आहार की शुद्धि से अन्तः- करण की शुद्धि होती है।’
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय: ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु॥7॥
आहार भी सबको तीन प्रकार का प्रिय होता है। (ऐसे ही) यज्ञ, तप तथा दान भी। उनके इस भेद को तू सुन।।7।।
आहारः अपि सर्वस्त्र प्राणिजातस्य सत्त्वादिगुणत्रयान्वयेन त्रिविधः प्रियो भवति। तथा एव यज्ञः अपि त्रिविधः, तथा तपो दानं च। तेषां भेदम् इमं श्रृणु- तेषाम् आहारयज्ञतपोदानानां सत्त्वादिगुणभेदेन इमम् उच्यमानं भेदं श्रृणु।।7।।
सभी प्राणियों को आहार भी सत्त्वादि तीनों गुणों के सम्बन्ध से तीन प्रकार का प्रिय होता है। वैसे ही यज्ञ भी तीन प्रकार का प्रिय होता है तथा तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के ही प्रिय होते हैं। उनका यह भेद तू सुन; अर्थात् उन आहार, यज्ञ तप और दान का सत्त्व आदि गुणों के भेद से यह आगे बतलाया जाने वाला भेद तू सुन ।।7।।
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