श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
सोलहवाँ अध्याय
ते च ईदृग्भूता यजन्ते इत्याह-
अब यह कहते हैं कि वे ऐसे स्वभाव से युक्त होकर यज्ञ किया करते हैं-
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिता: ।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयका: ॥18॥
अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोध का आश्रय लिये रहते हैं तथा वे (मेरी) निन्दा करने वाले अपने और दूसरों के शरीर में (स्थित) मुझ ईश्वर से द्वेष करते हैं।।18।।
अनन्यापेक्षः अहम् एव सर्वं करोमि इति एवंरूपम् अहंकारम् आश्रिताः, तथा सर्वस्य करणे मद्बलम् एव पर्याप्तम् इति च बलम्, अतो ‘मत्सदृशो न कश्चिद् अस्ति’ इति च दर्पम्, ‘एवम्भूतस्य मम काममात्रेण सर्वं सम्पत्स्यते’ इति कामम्, मम ये अनिष्टकारिणः तान् सर्वान् हनिष्यामि’ इति च क्रोधम्, एवम् एतान् संश्रिताः स्वदेहेषु परदेहेषु च अवस्थितं सर्वस्य कारयितारं पुरुषोत्तमं माम् अभ्यसूयकाः प्रद्विषन्तः कुयुक्तिभिः मत्स्थितौ दोषम् आविष्कुर्वन्तो माम् असहमानाः, अहंकारादिकान् संश्रिताः, यागादिकं सर्वं क्रियाजातं कुर्वते इत्यर्थः।।18।।
दूसरों की मुझे अपेक्षा नहीं हैं, ‘मैं ही सब कुछ करता हूँ’ इस प्रकार के अहंकार का आश्रय लेने वाले तथा सब कुछ करने में मेरा बल ही पर्याप्त है-इस प्रकार बल का ही पर्याप्त है-इस प्रकार बल का तथा इसीलिये मेरे समान कोई भी नहीं है, ऐसे दर्प का तथा मैं ऐसा हूँ, मेरी इच्छा मात्र से ही मुझे सब कुछ मिल जायगा-इस प्रकार काम का तथा जो मेरा अनिष्ट करने वाले हैं, उन सबको मैं मार डालूँगा-इस प्रकार क्रोध का आश्रय लेने वाले होते हैं। वे इस प्रकार इन सबका आश्रय लेने वाले मनुष्य अपने शरीर में एवं दूसरों के शरीर में स्थित सबके प्रेरक मुझ पुरुषोत्तम की निन्दा करने वाले तथा मेरे प्रति द्वेष रखने वाले अर्थात् कुत्सित युक्तियों के द्वारा मेरे अस्तित्व में दोषारोपण करके मुझको न सह सकने वाले होते हैं। अभिप्राय यह है कि अहंकार आदि समस्त दोषों का आश्रय लेकर ही यज्ञादि सारी क्रियाओं को करते हैं।।18।।
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