श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
सोलहवाँ अध्याय
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुच: सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥5॥
दैवी सम्पदा मोक्ष के लिये और आसुरी सम्पदा बन्धन के लिये मानी जाती है। पाण्डुकुमार! (तू) शोक मत कर, तू दैवी सम्पदा में उत्पन्न हुआ है।।5।।
दैवी मदाज्ञानुवृत्तिरूपा सम्पद् विमोक्षाय बन्धात् मुक्तये भवति क्रमेण मत्प्राप्तये भवति इत्यर्थः।
मेरी आज्ञा के अनुसार आचरण करना रूप दैवी सम्पदा मोक्ष प्रदान करने वाली-बन्धन से मुक्त करने वाली है। अभिप्राय यह है कि क्रम से मेरी प्राप्ति करवा देने वाली है।
आसुरी मदाज्ञातिवृत्तिरूपा सम्पद् निबन्धाय भवति, अधोगतिप्राप्तये भवति इत्यर्थः।
तथा मेरी आज्ञा के विपरीत आचरण करना रूप सम्पदा बन्धन करने वाली-अधोगति प्राप्त कराने वाली होती है।
एतत् श्रुत्वा स्वप्रकृत्यनिर्धारणाद् अतिभीताय अर्जुनाय एवम् आह- शोकं मा कृथाः; त्वं तु दैवीं सम्पदम् अभिजातः असि। हे पाण्डव धार्मिकाग्रेसरस्य हि पाण्डोः तनयः त्वम् इति अभिप्रायः।।5।।
यह सुनकर अपनी प्रकृति के विषय में यथार्थ निश्चय न कर सकने के कारण अत्यन्त डरे हुए अर्जुन से भगवान् यह बोले कि ‘पाण्डव!’ तू शोक मत कर। क्योंकि तू देवी सम्पदा को सामने रखकर उत्पन्न हुआ है।’ ‘पाण्डव’ नाम से सम्बोधन करने का यह अभिप्राय है कि तू धार्मिकों में अग्रगण्य पाण्डु का पुत्र है।।5।।
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