श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौदहवाँ अध्याय
कर्तृभ्यो गुणेभ्यः अन्यम् अकर्तारम् आत्मानं पश्यन् भगवद्भावम् अधिगच्छति इति उक्तम्, स भगवद्भावः कीदृश? इति अत्र आह-
कर्तारूप गुणों से भिन्न, आत्मा को अकर्ता समझकर पुरुष भगवद्धाव को प्राप्त होता है, यह कहा गया है, अतः वह भगवद् भाव कैसा है, इस पर कहते हैं-
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥20॥
यह जीवात्मा शरीर (प्रकृति)-से उत्पन्न इन तीनों गुणों को लाँघकर जन्म, मृत्यु, जरा के दुःखों से मुक्त होकर अमृतरूप आत्मा का अनुभव करता है।।20।।
अयं देही देहसमुद्भवान् देहाकार परिणतप्रकृतिसमुद्भवान् एतान् सत्त्वादीन् त्रीन् गुणान् अतीत्य तेभ्यः च अन्यम् ज्ञानैकाकारम् आत्मानम् पश्यन् जन्ममृत्युजरादुःखैः विमुक्तः अमृतम् आत्मानम् अनुभवति; एष मद्भाव इत्यर्थः।।20।।
यह आत्मा शरीर से उत्पन्न-शरीर के इन आकार में परिणत प्रकृति से उत्पन्न इन सत्त्वादि तीनों गुणों को लाँघकर उनसे भिन्न एकमात्र ज्ञानस्वरूप आत्मा का साक्षात्कार करके जन्म-मृत्यु और बुढ़ापे के दुःखों से मुक्त होकर अमृतरूप आत्मा का अनुभव करता है। यही मेरा भाव है, यह अभिप्राय है।।20।।
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