श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौदहवाँ अध्याय
पुनः अपि तद् ज्ञानं फलेन विशिनष्टि-
फिर और भी उस ज्ञान का फल बतलाकर विस्तार करते हैं-
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागता:।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥2॥
इस ज्ञान का आश्रय लेकर मेरे साधर्म्य को प्राप्त हुए पुरुष न तो सृष्टिकाल में उत्पन्न होते हैं और न प्रलयकाल में व्यथित होते हैं।।2।।
इदं वक्ष्यमाणं ज्ञानम् उपाश्रित्य मम साधर्म्यम् आगताः मत्साम्यं प्राप्ताः, सर्गे अपि न उपजायन्ते न सृजिकर्मतां भजन्ते, प्रलये न व्यथन्ति च, न च संहृतिकर्मतां भजन्ते।।2।।
इस आगे कहे जाने वाले ज्ञान का आश्रय लेकर मेरी समता को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टिकाल में उत्पन्न नहीं होते- यानी सृष्टिक्रिया के कर्म नहीं बनते और प्रलयकाल में व्यथित भी नहीं होते यानी संहार-क्रिया के भी कार्य नहीं बनते (अर्थात् उनका नाश भी नहीं होता) ।।2।।
अथ प्राकृतानां गुणानां बन्ध हेतुताप्रकारं वक्तुं सर्वस्य भूतजातस्य प्रकृतिपुरुषसंसर्गजत्वम् ‘यावत्सञ्जायते किञ्चित्’[1] इत्यनेन उक्तं भगवता स्वेन एव कृतम् इत्याह-
अब प्राकृत गुण किस प्रकार बन्धन के हेतु होते हैं, यह बतलाने के लिये कहते हैं कि ‘यावत् सञ्जायते किञ्चित्’ इस श्लोक के द्वारा बतलाया हुआ सम्पूर्ण प्राणीमात्र का प्रकृति-पुरुष के संयोग से उत्पन्न होना स्वयं भगवान् की ही रचना है (स्वतन्त्र नहीं)-
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