श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
तेरहवाँ अध्याय
अथ अत्यन्तविविक्तस्वभावयोः प्रकृत्यात्मनोः संसर्गस्य अनादित्वं संसृष्टयोः द्वयोः कार्यभेदः संसर्गहेतुः च उच्यते-
अब अत्यन्त भिन्न स्वभाव वाले प्रकृति और आत्मा के संसर्ग का अनादित्व तथा परस्पर संयुक्त हुए दोनों के पृथक्-पृथक् कार्य और दोनों के संसर्ग का कारण भी बतलाते हैं-
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥19॥
प्रकृति और पुरुष इन दोनों को ही तू अनादि जान। और सब विकारों तथा गुणों को तू प्रकृति से उत्पन्न हुआ जान।।19।।
प्रकृतिपुरुषौ उभौ अन्योन्यसंसृष्टौ अनादी इति विद्धि। बन्धहेतुभूतान् विकारान् इच्छाद्वेषादीन् अमानि त्वादिकान् च गुणान् मोक्षहेतुभूतान् प्रकृतिसम्भवान् विद्धि।
तू ऐसा जान कि एक-दूसरे से संयुक्त हुए प्रकृति और पुरुष ये दोनों अनादि हैं, तथा बन्धन के कारण रूप इच्छा-द्वेष आदि विकारों को और मोक्ष के कारणरूप अमानित्वादि गुणों को तू प्रकृति से उत्पन्न जान।
पुरुषेण संस्रष्टा इयम् अनादि कालप्रवृत्ता क्षेत्राकारपरिणता प्रकृतिः स्वविकारैः इच्छाद्वेषादिभिः पुरुषस्य बन्धहेतुः भवति। सा एव अमानित्वादिभिः स्वविकारैः पुरुषस्यापवर्गहेतुः भवति इत्यर्थः।।19।।
अभिप्राय यह है कि पुरुष के संसर्ग में पड़ी हुई यह अनादि काल से प्रवृत्त, शरीर के आकार में परिणत प्रकृति ही अपने विकार इच्छा-द्वेषादि के द्वारा पुरुष को बाँधने में कारण होती है। और वही अपने विकार अमानित्वादि गुणों के द्वारा पुरुष के मोक्ष का कारण होती है।।19।।
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