श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
तेरहवाँ अध्याय
सर्वत:पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वत:श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥13॥
वह (आत्मा) सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर, मुखवाला तथा सब ओर कान वाला है, तथा इस जगत् में सबको ढककर स्थित हो रहा है।। 13।।
सर्वतः पाणिपादं तत् परिशुद्धात्म स्वरूपं सर्वतः पाणिपादकार्यशक्तम्, तथा सर्वतोऽक्षिरोमुखम् सर्वतः श्रुतिमत् सर्वतश्चक्षुरादिकार्यकृत्-
वह सब जगह हाथ-पैर वाला है- प्रकृति के संसर्ग से रहित शुद्ध आत्मा सर्वत्र हाथ-पैर का कार्य करने में समर्थ है तथा सब जगह नेत्र, सिर, मुखवाला और सब जगह कान वाला है- सर्वत्र नेत्र आदि सभी इन्द्रियों का कार्य करने वाला है-
‘अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः’ [1] इति परस्य ब्रह्मणः अपाणिपादस्य अपि सर्वतः पाणिपादादिकार्यकर्तृत्वं श्रूयते। प्रत्यगात्मनः अपि परिशुद्धस्य तत्माम्यापत्या सर्वतः पाणिपादादिकार्यकर्तृत्वं श्रुतिसिद्धम् एव।
‘वह परमेश्वर बिना हाथ-पैर के चलने और ग्रहण करने वाला है, बिना आँखों के देखता और बिना कानों के सुनता है’ इस प्रकार परब्रह्म को बिना हाथ-पैर के भी सब ओर हाथ-पैर आदि का कार्य करने वाला श्रुति बतलायी है। विशुद्ध प्रत्यगात्मा को भी उसकी समानता प्राप्त हो जाती है; इसलिये उसका भी सब जगह हाथ, पैर आदि इन्द्रियों का कार्य करने में समर्थ होना श्रुतिसिद्ध ही है।
‘तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरंजनः परमं साम्यमुपैति’ [2] इति हि श्रूयते। ‘इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।’[3] इति च वक्ष्यते।
‘तब ज्ञानी पुण्य-पापों से छूटकर निर्लेप होकर परम पुरुष की समानता को पा जाता है’ यह बात श्रुति में कही है। तथा ‘इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः’ इस प्रकार गीता में भी आगे कहेंगे।
लोके सर्वम् आवृत्य तिष्ठति इति। लोके यद् वस्तुजातं तत् सर्व व्याप्य तिष्ठति; परिशुद्धस्वरूपं देशादिपरिच्छेदरहिततया सर्वगतम् इत्यर्थः।।13।।
वह क्षेत्रज्ञ संसार में सबको ढककर स्थित हो रहा है- संसार में जो कुछ वस्तुमात्र है उस सबको व्याप्त किये हुए हे। अभिप्राय यह है कि विशुद्ध आत्मा का स्वरूप देश आदि के द्वारा परिच्छिन्न न होने के कारण सर्वव्यापी है।।13।।
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