श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
तेरहवाँ अध्याय
अथ ‘एतद् यो वेत्ति’[1] वेदितृत्वलक्षणेन उक्तस्य क्षेत्रज्ञस्य स्वरूपं विशोध्यते-
अब ‘एतद् यो वेत्ति’ इस वाक्य में ज्ञातापन के लक्षण से बतलाये हुए क्षेत्रज्ञ के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं-
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्मा न सत्तन्नासदुच्यते ॥12॥
जो ज्ञेय है, उसको मैं कहूँगा, जिसको जानकर (मनुष्य) अमृत भोगता है। वह अनादि, मत्पर और ब्रह्म है। वह न सत् और न असत् ही कहा जा सकता है।।12।।
अमानित्वादिभिः साधनैः ज्ञेयं प्राप्यं यत् प्रत्यगात्मस्वरूपं तत् प्रवक्ष्यामि, यद् ज्ञात्वा जन्मजरामरणादिप्राकृतधर्मरहितम् अमृतम् आत्मानं प्राप्नोति। अनादि आदिर्यस्य न विद्यते तद् अनादिः, अस्य हि प्रत्यगात्मन उत्पत्तिः न विद्यते तत एव अन्तो न विद्यते। श्रुतिश्च- ‘न जायते म्रियते वा विपश्चित्’ [2] इति।
अमानित्व आदि साधनों के द्वारा जानने में आने वाला-प्राप्त किया जाने योग्य जो प्रत्यगात्मा (जीव)- का स्वरूप है, वह बतलाऊँगा, जिसको जानकर (मनुष्य) जन्म-जरा और मरण आदि प्राकृत धर्मो से रहित अमृतरूप आत्मा को प्राप्त करता है। जिसका आदि न हो वह अनादि है। इस प्रत्यगात्मा की उत्पत्ति नहीं है, इसलिये इसका अन्त भी नहीं है। श्रुति भी कहती है कि ‘विपश्चित् (आत्मा) न जन्मता है और न मरता है’ इसलिये वह अनादि है।
मत्परम्- अहं परो यस्य तद् मत्परम्-‘इतस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परां जीवभूताम्’ [3] इति हि उक्तम्, भगवच्छरीरतया भगवच्छेषतैकरसं हि आत्मस्वरूपम्। तथा च श्रुतिः- ‘य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति’ [4] इति। तथा ‘स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः।’[5] इत्यादिका।
मैं जिसका पर (स्वामी) होऊँ, उसका नाम मत्पर है; क्योंकि ‘इतस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परां जीवभूताम्’ यह बात पहले कही गयी है। इस प्रकार भगवान् का शरीर होने से एकमात्र भगवान् ही जिसका स्वामी (शेषी) और आत्मा है, ऐसा आत्मा का स्वरूप है। इसलिये वह ‘मत्पर’ है। यही बात ‘जो आत्मा में रहता हुआ आत्मा की अपेक्षा अन्तरतम है, जिसको आत्मा नहीं जानता, जिसका आत्मा शरीर है, जो आत्मा के अंदर रहकर उसका नियमन करता है।’ तथा ‘वह सबका कारण और करणाधिपतियों का भी अधिपति है, इसका कोई न तो जनयिता है और न अधिपति है।’ ‘वह प्रकृति और पुरुष दोनों का पति और गुणों का ईश्वर है।’ इत्यादि श्रुतियाँ भी कहती हैं।
ब्रह्म बृहत्त्वगुणयोगि, शरीरादेः अर्थान्तरभूतम्, स्वतः शरीरादिभिः परिच्छेदरहितं क्षेत्रज्ञतत्त्वम् इत्यर्थः।
तथा वह क्षेत्रज्ञ-तत्त्व ब्रह्म है यानी बृहत्ता के गुणों से युक्त है, शरीर से भिन्न वस्तु है, वास्तव में शरीरादि के द्वारा परिच्छिन्न नहीं है।
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