श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
तेरहवाँ अध्याय
एवम् ऋक्सामाथर्वसु च तत्र तत्र क्षेत्रक्षेत्रज्ञयो: पृथग्भाव: तयो: ब्रह्मात्मकत्वं च सुस्पष्टं गीतम्।
इस प्रकार ऋक्, साम और अथर्ववेद में भी स्थान-स्थान पर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का पृथक्त्व तथा इन दोनों का आत्मा ब्रह्म है, यह बात स्पष्ट रूप से कही गयी है।
'ब्रह्मसूत्रपदै: च एव' ब्रह्मप्रतिपादनसूत्राख्यै: पदै: शारीरिक-सूत्रै: हेतुमद्भि: हेतुयुक्तै:। विनिश्चितै: निर्णयांतै: 'न वियदश्रुते:'[1] इति आरभ्य क्षेत्रप्रकारनिर्णय उक्त:। 'नात्माऽश्रुते-र्नित्यत्वाच्च ताभ्य:'[2]इत्यारभ्य 'ज्ञोऽता एव' [3] इत्यादिभिः क्षेत्रज्ञयाथात्म्यनिर्णय उक्तः। ‘परात्तु तच्छुतेः’ [4] इति च भगवत्प्रवर्त्यत्वेन भगवदात्मकत्वम् उक्तम्।
‘ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव’ जो ब्रह्म को प्रतिपादन करने वाले सूत्र नामक पद हैं, युक्ति से युक्त हैं तथा भलीभाँति निर्णय करने वाले हैं ऐसे शारीरिक सूत्रों के पदों द्वारा भी यही तत्त्व कहा गया है। ‘आकाश की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि इसमें श्रुति प्रमाण नहीं है’ यहाँ से पूर्वपक्ष का आरम्भ करके क्षेत्र के भेदों का निर्णय कहा गया है, (वहाँ जड-प्रकृति के कार्यों को उत्पत्तिशील बताया गया है) तथा ‘आत्मा उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि जीवात्मा की उत्पत्ति बताने वाली कोई श्रुति नहीं है तथा उन श्रुतियों से उसका नित्यत्व भी प्रतिपादित है’ यहाँ से लेकर ‘इसीलिये वह जानने वाला है’ इत्यादि सूत्रों द्वारा क्षेत्रज्ञ के यथार्थ स्वरूप का निर्णय किया गया है (वहाँ आत्मा को चेतन और कर्ता, भोक्ता तथा ज्ञाता सिद्ध किया गया है) इसके बाद ‘उसका कर्तृत्व परमात्मा के अधीन है; क्योंकि श्रुति से यही सिद्ध होता है।’ इस प्रकार सब भगवान् के अधीन प्रवृत्ति वाले होने से भगवान् ही सबका आत्मा है, यह बात कही है।
एवं बहुधा गीतं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं मया सङ्क्षेपेण सुस्पष्टम् उच्यमानं श्रृणु इति अर्थः ।।4।।
अभिप्राय यह है कि इस प्रकार बहुत तरह से कहे हुए क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के यथार्थ स्वरूप को मेरे द्वारा संक्षेप में ही सुस्पष्ट रूप से कहा हुआ तू सुन।।4।।
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