श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
तेरहवाँ अध्याय
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥2॥
अर्जुन! सारे क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी तू मुझको जान। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही (उपादेय) ज्ञान है, यह मेरा मत है।।2।।
देवमनुष्यादिसर्वक्षेत्रेषु वेदितृ त्वैकाकारं क्षेत्रज्ञं च मां विद्धि मदात्मकं विद्धि क्षेत्रज्ञं च अपि इति अपिशब्दात् क्षेत्रम् अपि मां विद्धि इति उक्तम् इति अवगम्यते।
देव-मनुष्यादि समस्त क्षेत्रों (शरीरों)-में जो एकमात्र ज्ञातारूप आकार वाला क्षेत्रज्ञ है वह भी मैं हूँ, ऐसा समझ-उसका आत्मा मैं हूँ, ऐसा समझ। ‘क्षेत्रज्ञं च अपि’ इस वाक्य में ‘अपि’ शब्द का प्रयोग होने से यह अभिप्राय जान पड़ता है कि ‘क्षेत्र’ भी तू मुझको ही समझ ऐसा कहा गया है।
यथा क्षेत्रं क्षेत्रज्ञविशेषणतैकस्वभावतया तदपृथक् सिद्धेः तत्सामानाधिकरण्येन एव निर्देश्यं तथा क्षेत्रं क्षेत्रज्ञः च मद्विशेषणतैकस्वभावतया मदपृथक्सिद्धेः मत्सामानाधिकरण्येन एव निर्देश्यौ विद्धि।
जैसे ‘क्षेत्रज्ञ’ का विशेषण होना ही क्षेत्र का एकमात्र स्वभाव है इस कारण वह क्षेत्रज्ञ से अभिन्न सिद्ध होता है, इसलिये उसका क्षेत्रज्ञ के साथ समानाधिकरणता से वर्णन किया जाना ठीक है, वैसे ही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ इन दोनों का भी स्वभाव एकमात्र मेरा (भगवान् का) विशेषण होकर रहना है अतः वे मुझसे अभिन्न सिद्ध होने हैं, इसलिये इनका वर्णन भी मेरे साथ समानाधिकरता से ही किया जाना उचित है, ऐसा तू समझ।
वक्ष्यति हि क्षेत्राद् क्षेत्रज्ञात् च बद्ध मुक्तोभ्यावस्थात् क्षराक्षरशब्दनिर्दिष्टाद् अर्थान्तरत्वं परस्य ब्रह्मणो वासुदेवस्य-‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।। उत्तमः पुरुष स्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोक त्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।। यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।’[1] इति।
यथार्थ में तो ‘क्षेत्र’ से तथा क्षर और अक्षर नाम से कहे हुए बद्ध और मुक्त दोनों अवस्थाओं में स्थित ‘क्षेत्रज्ञ’ से परब्रह्म भगवान् वासुदेव की भिन्नता इस प्रकार कहेंगे-‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।। उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्व बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।। यस्मात्क्षरमतीतोऽक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।’
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