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आठवां अध्याय
प्रयाण-साधना: सातत्ययोग
37. मरण का स्मरण रहे
8. कॉलेज में प्रोफेसर तर्कशास्त्र पढ़ाता है- ‘‘मनुष्य मर्त्य है। सुकरात मनुष्य है, अतः सुकरात मरेगा।’’ यह अनुमान वह सिखाता है। वह सुकरात का उदाहरण देता है, खुद अपना क्यों नहीं देता? प्रोफेसर भी मर्त्य है। वह क्यों नहीं पढ़ाता कि "सब मनुष्य मर्त्य हैं, अतः मैं प्रोफेसर भी मर्त्य हूँ और तुम शिष्य भी मर्त्य हो!" वह उस मरण को सुकरात पर ढकेल देता है, क्योंकि सुकरात तो मर चुका है। वह झगड़ा करने के लिए हाजिर नहीं है। शिष्य और गुरु दोनों सुकरात को मरण सौंपकर अपने लिए ‘तेरी भी चुप, मेरी भी चुप’ वाली गति करते हैं। मानो, वे यह समझ बैठे हैं कि हम तो बहुत सुरक्षित हैं।
9. इस तरह मृत्यु को भूलने का यह प्रयत्न सर्वत्र रात-दिन जान-बूझकर हो रहा है। परंतु इससे मृत्यु कहीं टल सकती है? कल यदि मां मर जाये, तो मौत सामने आने ही वाली है। मनुष्य निर्भयतापूर्वक मरण का विचार करके यह हिम्मत ही नहीं करता कि उसमें से रास्ता कैसे निकाला जाये। मान लो कि कोई शेर हिरन के पीछे पड़ा है। वह हिरन खूब चौकड़ी भरता है, परंतु उसकी शक्ति कम पड़ती जाती है और अंत में वह थक जाता है। पीछे से वह शेर, यमदूत दौड़ा आ ही रहा है। उस समय उस हिरन की क्या दशा होती है? वह उस शेर की ओर देख भी नहीं सकता। वह मिट्टी में सींग और मुंह घुसाकर, आंख मूंदकर खड़ा हो जाता है, मानो निराधार होकर कहता है- "ले, आ और मुझे हड़प जा।" हम मृत्यु का सामना नहीं कर सकते। उससे बचने के लिए हम हजारों तरकीबें निकालें तो भी उसका जोर इतना होता है कि अंत में वह धर दबाती ही है।
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