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आठवां अध्याय
प्रयाण-साधना: सातत्ययोग
37. मरण का स्मरण रहे
6. परंतु मनुष्य मरण का स्मरण टालता है। 'पास्कल' नाम का एक फ्रेंच दार्शनिक हो गया। उसकी एक पुस्तक है- ‘पांसे’। ‘पांसे’ का अर्थ है- ‘विचार’। उसने इस पुस्तक में भिन्न-भिन्न स्फुट विचार दिये हैं। उसमें वह एक जगह लिखता है- "मौत सदा पीछे खड़ी है; परन्तु मनुष्य का यह प्रयत्न सतत चल रहा है कि उसे भूले कैसे? किंतु वह यह बात अपने सामने नहीं रखता कि मृत्यु को याद रखकर कैसे चले?" मनुष्य को ‘मरण’ शब्द तक सहन नहीं होता। खाते समय यदि मृत्यु का नाम किसी ने ले लिया, तो कहते हैं- "क्या अशुभ बात मुंह से निकालते हो!" परंतु इतना होते हुए भी हमारा एक-एक कदम मृत्यु की ओर ही बढ़ रहा है। बंबई का टिकट कटाकर एक बार तुम रेल में बैठ गये, तो तुम भले ही बैठे रहो, परन्तु गाड़ी तुम्हें बंबई ले जाकर छोड़ ही देगी। जन्म होते ही हमने मृत्यु का टिकट कटा रखा है। अब आप बैठे रहिए या दौड़ते रहिए। बैठे रहेंगे तो भी मृत्यु आयेगी, दौड़ते रहेंगे तो भी। आप मृत्यु का विचार करें या न करें, वह आये बिना नहीं रहेगी। मरण निश्चित है, और बातें भले ही अनिश्चित हों। सूर्य अस्ताचल की ओर चला कि हमारी आयु का एक अंश उसने खाया। जीवन के टुकड़े यों कटते जा रहे हैं, जीवन छीज रहा है, एक-एक बूंद घट रहा है, तो भी मनुष्य को उसका कुछ खयाल नहीं। ज्ञानेश्वर कहते हैं- "बड़ा अजीब है!" उन्हें आश्चर्य होता है कि मनुष्य क्यों कर इतनी निश्चिंतता अनुभव करता है। मनुष्य को मरण का इतना भय लगता है कि उसे मरण का विचार तक सहन नहीं होता। वह सदा मरण के विचार को टालता रहता है। आंखों पर पर्दा डालकर बैठ जाता है। लड़ाई पर जाने वाले सैनिक मरण का विचार टालने के लिए खेलते हैं, नाचते-गाते हैं, सिगरेट पीते हैं, पास्कल लिखता है कि - "प्रत्यक्ष मरण सर्वत्र देखते हुए भी यह टामी, यह सिपाही, उसे भूलने के लिए खाने-पीने में और गान-तान में मस्त रहता है।"
7. हम सब इसी टामी की तरह हैं। चेहरे को गोल हंसमुख बनाने का प्रयत्न करना, सूखा हो तो तेल, पोमेड लगाना; बाल सफेद हो गये हों, तो खिजाब लगाना- ऐसे प्रयत्न मनुष्य करता है। छाती पर मृत्यु नाच रही है, फिर भी हम टामी की तरह उसे भूलने का अखंड प्रयत्न कर रहे हैं। और चाहे कोई भी बातें करेंगे‚ पर "मौत की बात मत निकालो" कहेंगे। मैट्रिक पास लड़के से पूछो कि "अब आगे क्या इरादा है?" तो वह कहता है- "अभी मत पूछो, अभी तो फस्ट ईयर में हूँ।" दूसरे साल फिर पूछोगे तो कहेगा- "पहले इंटर तो हो जाने दो, फिर देखेंगे।" यही सिलसिला चलता है। जो आगे होने वाला है, उसका क्या पहले से विचार नहीं करना चाहिए? अगले कदम के बारे में पहले से सोच लेना चाहिए, नहीं तो वह गड़्ढे में गिर सकता है, परंतु विद्यार्थी इन सबको टालता है। बेचारे की शिक्षा ही इतनी अंधकारमय होती है कि उससे उस पार का भविष्य उसे दिखायी नही देता। अतः आगे क्या करना है, यह सवाल ही वह सामने नहीं आने देता, क्योंकि उसे चारों ओर अंधकार ही दिखायी देता है। परंतु भविष्य टाला नहीं जा सकता। वह तो गर्दन पर आकर सवार हो ही जाता है।
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