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सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
34. सकाम भक्ति का भी मूल्य है
12. एक बार मैं रेल में जा रहा था। यमुना के पुल पर गाड़ी आयी। पास बैठे एक आदमी ने बड़े पुलकित हृदय से उसमें एक धेला डाल दिया। पड़ोस में एक आलोचक महाशय बैठे थे। कहने लगे- "पहले ही देश कंगाल है और ये लोग यों व्यर्थ पैसा फेंकते हैं!" मैंने कहा- "आपने उसके हेतु को पहचाना नहीं। जिस भावना से हमने धेला- पैसा फेंका‚ उसकी कीमत दो-चार पैसे होगी या नहीं? यदि दूसरे सत्कार्य के लिए पैसे दिये होते, तो यह दान और भी अच्छा होता। किन्तु इस बात का विचार पीछे करेंगे। परन्तु उस भावनाशील मनुष्य ने तो इस भावना से प्रेरित होकर यह त्याग किया है कि यह नदी यानि ईश्वर की करुणा ही बह रही है। इस भावना के लिए आपके अर्थशास्त्र में कोई स्थान है क्या? देश की एक नदी को देखकर उसका अंतःकरण द्रवित हो उठा। यदि इस भावना की आप कद्र कर सकें, तो मैं आपकी देश-भक्ति को परखूंगा।" देश-भक्ति का अर्थ क्या रोटी है? देश की महान नदी को देखकर यदि यह भावना मन में जगती है कि अपनी सारी संपत्ति इसमें डुबो दूं, इसके चरणों में अर्पण कर दूं, तो यह कितनी बड़ी देश-भक्ति है! वह सारी धन-दौलत, वे सब सफेद, लाल, पीले पत्थर, कीड़ों की विष्ठा से बने मोती, मूंगा- इन सबकी कीमत पानी में डुबो देने लायक ही है। परमेश्वर के चरणों के आगे यह सारी धूल तुच्छ समझो। आप कहेंगे कि नदी का और परमेश्वर के चरणों का क्या संबंध? आपकी सृष्टि में परमात्मा का कुछ संबंध है भी? नदी है, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन। सूर्य है, गैस की बत्ती का एक बड़ा-सा नमूना। उसे नमस्कार क्या करें! नमस्कार करना होगा सिर्फ आपकी रोटी को! फिर उस रोटी में भला क्या है? वह भी तो आखिर एक सफेद मिट्टी ही है। उसके लिए क्यों इतनी लार टपकाते हो? इतना बड़ा यह सूर्य उगा है, ऐसी यह सुंदर नदी बह रही है- इनमें यदि पमेश्वर का अनुभव न होगा, तो फिर होगा कहां? अंग्रेज कवि वर्डस्वर्थ बड़े दुःख से कहता है- "पहले जब मैं इंद्र-धनुष देखता था, तो नाच उठता था। हृदय हिलोरें मारने लगता था। पर आज मैं क्यों नहीं नाच उठता? पहले की जीवन-माधुरी खोकर कहा मैं पत्थर तो नहीं बन गया?"
सारांश यह कि सकाम भक्ति अथवा गंवार मनुष्य की भावना का भी बड़ा महत्त्व है। अंत में इससे महान सामर्थ्य पैदा होता है। जीवधारी कोई भी और कैसा ही हो, वह जब एक बार, परमेश्वर के दरबार में आ जाता है, तो फिर मान्य हो जाता है। आग में किसी भी लकड़ी को डालिए, वह जल ही उठेगी। परमेश्वर की भक्ति एक अपूर्व साधना है। परमेश्वर सकाम भक्ति का भी केंद्र करेगा। बाद में वह भक्ति निष्कामता और पूर्णता की ओर जायेगी।
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