गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 67

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सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
32. भक्ति का भव्य दर्शन

8. इस आनंद का पता लगाने के लिए उत्कृष्ट मार्ग है- भक्ति। इस रास्ते चलते-चलते परमेश्वरीय कुशलता मालूम हो जायेगी। उस दिव्य कल्पना के आते ही दूसरी सब कल्पनाएं अपने-आप विलीन हो जायेंगी। फिर क्षुद्र आकर्षण नहीं रह जायेगा। फिर संसार में एक आनंद ही भरा हुआ दिखायी देगा। मिठाई की दुकानें भले ही सैकड़ों हों, परंतु मिठाइयों का प्रकार एक-सा होता है। जब तक असली चीज हाथ नहीं लगेगी, तब तक हम चंचल चिड़िया की तरह एक चीज यहाँ की खायेंगे, एक वहाँ की।

सुबह मैं तुलसी-रामायण पढ़ रहा था। दीपक के पास कीड़े जमा हो रहे थे। इतने में वहाँ एक छिपकली आयी। उसे मेरी रामायण से क्या लेना-देना था। कीड़े देखकर उसे बड़ा आनंद हो रहा था। वह कीड़ों पर झपटने वाली थी कि मैंने जरा हाथ हिलाया, वह भाग गयी। परन्तु उसका ध्यान एक-सा लगा था कीड़े की ओर। मैंने अपने मन से पूछा- "तू खायेगा इस कीड़े को? तेरी जीभ से लार टपकती है?" मेरी जीभ से लार नहीं टपकी। जिस रस का आनंद मैं लूट रहा था, उसका उस बेचारी छिपकली को क्या पता? वह रामायण का रस नहीं चख सकती थी। इस छिपकली की तरह हमारी दशा है। हम नाना रसों में मस्त हैं। परंतु यदि सच्चा रस मिल जाये, तो कैसी बहार आये! भगवान भक्तिरूपी एक साधन दिखा रहे हैं, जिससे हम उस असली रस को चख सकें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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