गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 68

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सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
34. सकाम भक्तिका भी मूल्य है

9. भगवान ने भक्त के तीन प्रकार बतलाये हैं-

  1. सकाम भक्ति करने वाला
  2. निष्काम परन्तु एकांगी भक्ति करने वाला और
  3. ज्ञानी अर्थात संपूर्ण भक्ति करने वाला।
  • निष्काम परंतु एकांगी भक्ति करने वालें के भी तीन प्रकार हैं-
  1. आर्त
  2. जिज्ञासु
  3. अर्थार्थी। भक्तिवृक्ष की ये शाखा-प्रशाखाएं हैं।

सकाम भक्ति करने वाला यानि क्या? कुछ इच्छा मन में रखकर भगवान के पास जाने वाला। मैं उसकी यह कहकर निंदा नहीं करूंगा कि यह भक्ति निकृष्ट प्रकार की है। बहुत लोग सार्वजनिक सेवा-क्षेत्र में इसीलिए कूदते हैं कि मान-सम्मान मिले। इसमें हर्ज क्या है? आप उन्हें खूब मान दीजिए। मान देने से कुछ बिगड़ेगा नहीं। ऐसा मान मिलते रहने से आगे सार्वजनिक सेवा में वे सुस्थिर हो जायेंगे। फिर उसी काम में उन्हें आनंद मालूम होने लगेगा। मान पाने की जो इच्छा होती है, उसका भी अर्थ आखिर क्या है? यही कि उस सम्मान से हमें विश्वास हो जाता है कि जो काम हम करते हैं, वह उत्तम हैं। मेरी सेवा अच्छी है या बुरी, यह समझने के लिए जिसके पास कोई आंतरिक साधन नहीं है, वह इस बाह्य साधन का सहारा लेता है। मां ने बच्चे की पीठ ठोंककर कहा ‘शाबाश’, तो उसकी तबीयत होती है कि मां का और काम करूं। यही बात सकाम भक्त की है। सकाम भक्त सीधा परमेश्वर के पास जाकर कहेगा - "दो।" सब कुछ परमेश्वर से मांगना कोई मामूली बात नहीं। यह असाधारण बात है।

ज्ञानदेव ने नामदेव से पूछा- "तीर्थयात्रा के लिए चलते हो?"
नामदेव ने कहा- "यात्रा किसलिए?"
ज्ञानदेव ने जवाब दिया- "साधु-संतों का समागम होगा।"
नामदेव ने कहा- "तो भगवान से पूछ आता हूँ।"
नामदेव मंदिर में जाकर भगवान के सामने खड़े हो गये। उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। भगवान के उन समचरणों की ओर वे देखते रहे। अतं में रोते-रोते उन्होंने पूछा- "प्रभो, क्या मैं जाऊं", ज्ञानदेव पास ही थे।
इस नामदेव को क्या आप पागल कहेंगे? ऐसे लोग बहुत हैं, जो घर में स्त्री न होने से रोते हैं। परन्तु परमेश्वर के पास जाकर रोने वाला भक्त सकाम भले ही हो, असाधारण है। अब यह उसका अज्ञान समझना चाहिए कि जो वस्तु सचमुच मांगने योग्य है, उसे वहीं नहीं मांगता। परन्तु इसलिए उसकी सकाम भक्ति त्याज्य नहीं मानी जा सकती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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