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छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
27. एकाग्रता कैसे साधें?
10. दिन-रात ऐसा भयानक संसार हमारे चारों ओर, भीतर-बाहर धू-धू करता रहता है। प्रार्थना अथवा भजन करने में भी हमारा हेतु बाहरी ही रहता है। परमेश्वर से तन्मय होकर एक क्षण के लिए तो संसार को भुला दें। लेकिन यह भावना ही नहीं रहती। प्रार्थना भी एक दिखावा होता है। जहाँ मन की ऐसी स्थिति है, वहाँ आसन जमाकर बैठना और आंख मूंदना, सब व्यर्थ है। मन की दौड़ निरन्तर बाहर की ओर रहने से मनुष्य का सारा सामर्थ्य नष्ट हो जाता है। किसी भी प्रकार की व्यवस्था, नियंत्रण-शक्ति मनुष्य में नहीं रहती। इसका अनुभव आज हमारे देश में पग-पग पर हो रहा है। वास्तव में भारतवर्ष तो परमार्थ-भूमि है। यहाँ के लोग पहले से ही ऊंची हवा में उड़ने वाले समझे जाते हैं, पर ऐसे देश में हमारी-आपकी क्या दशा है? छोटी-छोटी बातों की इतनी बारीकी से चर्चा करते हैं कि जिसे देखकर दुःख होता है। क्षुद्र विषयों में ही हमारा चित्त डूबा रहता है।
कथा पुराण ऐकतां। झोपें नाडिलें तत्त्वतां॥
खाटेवरि पड़तां। व्यापी चिंता तळमळ॥
ऐसी गहन कर्मगति। काय तयासी रडती॥
-‘कथा-पुराण श्रवण करने जाते हैं, तो निद्रा सताती है और बिस्तर पर लेटते है तो चिंता और बेचैनी रहती है। ऐसी कर्म की गहन गति है। क्या किया जाये?’ कथा-पुराण सुनने के लिए जाते हैं, तो वहाँ नींद आ घेरती है और नींद लेने जाते हैं, तो वहाँ चिंता और विचार-चक्र शुरू हो जाता है। एक ओर शून्याग्रता, तो दूसरी ओर अनेकाग्रता। एकाग्रता का कहीं पता नहीं। मनुष्य इंद्रियों का इतना गुलाम है। एक बार किसी ने पूछा- "आंखें अर्धोन्मीलित रखनी चाहिए, ऐसा क्यों कहा गया है?" मैंने कहा- "सीधा-सादा उत्तर देता हूँ। आंखें पूरी मूंद लें, तो नींद आ जाती हैं खुली रखें, तो चारों ओर दृष्टि जाकर एकाग्रता नहीं होती। आखें मूंदने से नींद लग जाती है, यह तमोगुण हुआ। खुली रखने से दृष्टि सब जगह जाती है, यह रजोगुण हुआ। इसलिए बीच की स्थिति कही है।"
तात्पर्य यह है कि मन की बैठक बदले बिना एकाग्रता नहीं हो सकती। मन की स्थिति शुद्ध होनी चाहिए। केवल आसन जमाकर बैठने से वह प्राप्त नहीं हो सकती। इसके लिए हमारे सब व्यवहार शुद्ध होने चाहिए। व्यवहार शुद्ध करने के लिए उसका उद्देश्य बदलना चाहिए। व्यवहार व्यक्तिगत लाभ के लिए, वासना-तृप्ति के लिए अथवा बाहरी बातों के लिए नहीं करना चाहिए।
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