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छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
27. एकाग्रता कैसे साधें?
11. व्यवहार तो हम दिन भर करते रहते हैं। आखिर दिन भर की इस खटपट का हेतु क्या है? याजसाठीं केला होता अट्टहास। शेवटचा दिस गोड व्हावा- ‘यह सारा परिश्रम इसीलिए तो किया था कि अंत की घड़ी मीठी हो।’ सारी खटपट, सारी दौड़-धूप इसीलिए न कि हमारा अंतिम दिवस मधुर हो जाये? जिंदगी भर कडुआ विष क्यों पचाते हैं? इसीलिए कि अंतिम घड़ी, वह मरण, पवित्र हो। दिन की अंतिम घड़ी शाम को आती है। आज के दिन का सारा काम यदि पवित्र भाव से किया होगा, तो रात की प्रार्थना मधुर होगी। वह दिन का अंतिम क्षण यदि मधुर हो गया, तो दिन का सारा काम सफल हुआ समझो। तब मन एकाग्र हो जायेगा।
एकाग्रता के लिए ऐसी जीवन-शुद्धि आवश्यक है। बाह्य वस्तुओं का चिंतन छूटना चाहिए। मनुष्य की आयु बहुत नहीं है। परन्तु इस थोड़ी-सी आयु में भी परमेश्वरीय सुख का अनुभव लेने का सामर्थ्य है। दो मनुष्य बिलकुल एक ही सांचे में ढले, एक-सी छाप लगे हुए, दो आंखे, उनके बीच एक नाक और उस नाक में दो नासा-पुट। इस तरह बिलकुल एक से होकर भी एक मनुष्य देव-तुल्य होता है तो दूसरा पशु-तुल्य। ऐसा क्यों होता है? एक ही परमेश्वर के बाल-बच्चे हैं, अवघी एकाची च वीण! ‘सब एक ही खानिके’। तो फिर यह फर्क क्यों पड़ता है? इन दो व्यक्तियों की जाति एक है, ऐसा विश्वास नहीं होता। एक नर का नारायण है, तो दूसरा नर का वानर!
12. मनुष्य कितना ऊंचा उठ सकता है, इसका नमूना दिखाने वाले लोग पहले भी हो गये हैं आज भी हमारे बीच हैं। यह अनुभव की बात है। इस नर-देह में कितनी शक्ति है, इसको दिखाने वाले संत पहले हो गये हैं और आज भी हैं। इस देह में रहकर यदि मनुष्य ऐसी महान करनी कर सकता है, तो फिर भला मैं क्यों न कर सकूंगा? मैं अपनी कल्पना को मर्यादा में क्यों बांध लूं? जिस नर-देह में रहकर दूसरे नर-वीर हो गये, वही नर-देह मुझे भी मिली है, फिर मैं ऐसा क्यों? कहीं-न-कहीं मुझसे भूल हो रही है। मेरा यह चित्त सदैव बाहर जाता रहता है। दूसरे के गुण-दोष देखने में वह बहुत आगे बढ़ गया है। परन्तु मुझे दूसरे के गुण-दोष देखने की जरूरत क्या है? कासया गुणदोष पाहों आणिकांचे। मज काय त्यांचें उणें असे- ‘दूसरों के गुण-दोष क्यों देखूं? मुझमें क्या उनकी कमी है? ‘खुद मुझमें क्या दोष कम हैं? यदि मैं सदैव दूसरों की छोटी-छोटी बातें देखने में तल्लीन रहा, तो फिर मेरे चित्त की एकाग्रता सधेगी कैसे? उस दशा में मेरी स्थिति दो ही प्रकार की हो सकती है। एक तो शून्य अवस्था अर्थात नींद, और दूसरी अनेकाग्रता। तमोगुण और रजोगुण में ही मैं उलझा रहूंगा।
भगवान ने, चित्त की एकाग्रता के लिए इस तरह बैठो, इस तरह आंखें रखो, इस तरह आसन जमाओ आदि सूचनाएं नहीं दीं, ऐसी बात नहीं। परन्तु इस सबसे लाभ तभी होगा, जब पहले चित्त की एकाग्रता के हम कायल हों। मनुष्य के चित्त में पहले यह जम जाये कि चित्त की एकाग्रता आवश्यक है, फिर तो मनुष्य खुद ही उसकी साधना और मार्ग ढूंढ़ निकालेगा।
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