गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 208

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सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
97. आहार-शुद्धि

15. ऐसी सेवा के लिए आहार-शुद्धि आवश्यक है। जैसा आहार, वैसा ही मन! आहार परिमित होना चाहिए। आहार कौन-सा हो, इसकी अपेक्षा यह बात अधिक महत्त्व की है कि वह कितना हो। ऐसा नहीं कि आहार का चुनाव महत्त्व की बात नहीं, परंतु हम जो आहार लेते हैं, वह उचित मात्रा में है या नहीं, यह उससे भी अधिक महत्त्व की बात है।

16. हम जो कुछ खाते हैं, उसका परिणाम अवश्य होगा। हम खाते क्यों हैं? इसीलिए कि उत्तम सेवा हो। आहार भी यज्ञांग ही है। सेवा रूपी यज्ञ को फलदायी बनाने के लिए आहार चाहिए। इस भावना से आहार की ओर देखो। आहार शुद्ध और स्वच्छ होना चाहिए। व्यक्ति अपने जीवन में कितनी आहार-शुद्धि कर सकता है, इसकी कोई मर्यादा नहीं। हमारे समाज ने आहार-शुद्धि के लिए पर्याप्त तपस्या की है। आहार-शुद्धि के लिए भारत में विशाल प्रयत्न, प्रयोग हुए हैं। उन प्रयोगों में हजारों वर्ष बीते। उनमें कितनी तपस्या लगी, यह कहा नहीं जा सकता।

इस भूमंडल पर भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ कितनी ही पूरी-की-पूरी जातियां मांसाशन-मुक्त हैं। जो जातियां मांसाहारी हैं, उनके भी भोजन में मांस नित्य और मुख्य पदार्थ नहीं है और जो मांस खाते हैं, वे भी उसमें कुछ हीनता अनुभव करते हैं। मन से तो वे भी मांस का त्याग कर चुके हैं। मांसाहार की प्रवृत्ति को रोकने के लिए यज्ञ प्रचलित हुआ और उसी के लिए वह बंद भी हुआ। श्रीकृष्ण ने भगवान ने तो यज्ञ की व्याख्या ही बदल दी। श्रीकृष्ण ने दूध की महिमा बढ़ायी। श्रीकृष्ण ने आसाधारण बातें कुछ कम नहीं की हैं, परंतु भारत की जनता किस कृष्ण के पीछे पागल हुई थी? भारतीय जनता को तो ‘गोपालकृष्ण’ ‘गोपालकृष्ण’ यही नाम प्रिय है। वह कृष्ण, जिसके पास गायें बैठी हुई हैं, जिसके अधरों पर मुरली धरी है, ऐसा गायों की सेवा करने वाला, गोपालकृष्ण ही आबाल-वृद्धों का परिचित है। गो-रक्षण का बड़ा उपयोग मांसाहार बंद करने में हुआ। गाय के दूध की महिमा बढ़ी और मांसाहार कम हुआ।

17. फिर भी संपूर्ण आहार-शुद्धि हो गयी हो, सो बात नहीं। हमें अब उसे आगे बढ़ाना है। बंगाली लोग मछली खाते हैं, यह देखकर कितने ही लोगों को आश्चर्य होता है। किंतु इसके लिए उन्हें दोष देना ठीक नही होंगा। बंगाल में सिर्फ चावल होता है। उससे शरीर को पूरा पोषण नहीं मिल सकता। इसके लिए प्रयोग करने पड़ेंगे। फिर लोगों में इस बात का विचार शुरू होगा कि मछली न खाकर कौन-सी वनस्पति खायें, जिसमें मछली के बराबर ही पुष्टि मिल जाये। इसके लिए असाधारण त्यागी पुरुष पैदा होंगे और फिर ऐसे प्रयोग होंगे। ऐसे व्यक्ति ही समाज को आगे ले जाते हैं। सूर्य जलता रहता है। तब जाकर कहीं जीवित रहने योग्य 98° उष्णता हमारे शरीर में रहती है। जब समाज में वैराग्य के प्रज्वलित सूर्य उत्पन्न होते हैं और जब वे बड़ी श्रद्धापूर्वक परिस्थितियों के बंधन तोड़कर बिना पंखों के अपने ध्येयाकाश में उड़ने लगते हैं, तब कहीं संसारोपयोगी अल्प-स्वल्प वैराग्य का हममें संचार होता है। मांसाहार बंद करने के लिए ऋषियों को कितनी तपस्या करनी पड़ी होगी, कितने प्राण अर्पण करने पड़े होंगे, इस बात का विचार ऐसे समय मेरे मन में आता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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