गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 207

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सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
96. साधना का सात्त्विकीकरण

13. इस प्रकार जब हमारे अंदर निष्कामता आ जायेगी और विधिपूर्वक सफल कर्म होगा, तभी हमारी चित्त-शुद्धि होने लगेगी। चित्त-शुद्धि की कसौटी क्या है? बाहरी काम की जांच करके देखा। यदि वह निर्मल और सुंदर न हो, तो चितत को भी मलिन समझ लेने में कोई बाधा नहीं। भला, कर्म में सुंदरता कब आती है? शुद्ध चित्त से परिश्रम के साथ किये हुए कर्म पर ईश्वर अपनी पसंदगी की, अपनी प्रसन्नता की मुहर लगा देता है। जब प्रसन्न परमेश्वर कर्म की पीठ पर प्रेम का हाथ फिराता है, तो वहाँ सौंदर्य उत्पनन हो जाता है। सौंदर्य का अर्थ है, पवित्र श्रम को मिला हुआ परमेश्वरीय प्रसाद।

शिल्पकार जब मूर्ति बनाते समय तन्मय हो जाता है, तो उसे ऐसा अनुभव होने लगता है कि यह सुंदर मूर्ति मेरे हाथों में नहीं बनी। मूर्ति का आकार गढ़ते-गढ़ते अंतिम क्षण में न जाने कहाँ से उसमें अपने-आप सौंदर्य आ टपकता है। क्या चित्त-शुद्धि के बिना यह ईश्वरीय कला प्रकट हो सकती है? मूर्ति में जो कुछ स्वारस्य, माधुर्य है, वह यही कि अपने अंतःकरण का सारा सौंदर्य उसमें उंड़ेल दिया जाता है। मूर्ति यानि हमारे चित्त की प्रतिमा! हमारे समस्त कर्म यानि हमारे मन की मूर्तियां ही हैं। अगर मन सुंदर है, तो वह कर्ममय मूर्ति भी सुंदर होगी। बाहर के कर्मों की शुद्धि मन की शुद्धि से और मन की शुद्धि बाहर के कर्मों से जांच लेनी चाहिए।

14. एक बात और। वह यह कि इन सब कर्मों में मंत्र भी चाहिए। मंत्रहीन कर्म व्यर्थ है। सूत कातते समय यह मंत्र अपने हृदय में रखो कि मैं इस सूत से गरीब जनता के साथ जोड़ा जा रहा हूँ। यदि यह मंत्र हृदय में न हो और घंटों क्रिया करें, तो भी वह सब व्यर्थ जायेगी। उस क्रिया से चित्त शुद्ध नहीं होगा। कपास की पूनी में से अव्यक्त परमात्मा सूत्ररूप में प्रकट हो रहा है- ऐसा मंत्र अपनी क्रिया में डालकर फिर उस क्रिया की ओर देखो। वह क्रिया अत्यंत सात्त्विक और सुंदर बन जायेगी। वह क्रिया पूजा बन जायेगी, यज्ञरूप हो जायेगी। उस छोटे-से धागे द्वारा हम समाज के साथ, जनता के साथ, जगदीश्वर के साथ बंध जायेंगे। बाल कृष्ण के छोटे-से मुंह में यशोदा मां को सारा विश्व दिखलायी दिया। उस मंत्रमय सूत्र के धागों में तुम्हें विशाल विश्व दिखायी देने लगेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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