गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 183

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पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
85. अहं-शून्य सेवा का ही अर्थ भक्ति

13. गीता चाहती है कि हमारी प्रत्येक कृति भक्तिमय हो। हम जो घड़ी, आध-घड़ी ईश्वर की पूजा करते हैं, सो तो ठीक ही है। सुबह-शाम जब सुंदर सूर्य-प्रभा अपना रंग छिटकाती है, तब चित्त को स्थिर करके घंटा, आध-घंटा संसार को भूल जाना और अनंत का चिंतन करना उत्तम विचार है। इस सदाचार को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। परंतु गीता को इतने से संतोष नहीं है। सुबह से शाम तक होने वाली तमाम क्रियाएं भगवान की पूजा के लिए होनी चाहिए। नहाते, खाते, सफाई करते उसका स्मरण रहना चाहिए। झाड़ते समय यह भावना होनी चाहिए कि मैं अपने प्रभु, अपने जीवन-देव का आंगन साफ कर रहा हूँ। हमारे समस्त कर्म इस तरह पूजा-कर्म हो जाने चाहिए। यदि यह दृष्टि आ जाये। तो फिर देखिएगा, आपके व्यवहार में कितना अंतर पड़ जाता है! हम कितनी सावधानी से पूजा के लिए फूल चुनते हैं, उन्हें जतन से डलिया में संभालकर रखते हैं। वे दब न जायें, कुचल न जायें, कुम्हला न जायें इसका कितना ध्यान रखते हैं। कहीं मलिन न हो जायें, इस ख्याल से उन्हें नाक के पास भी नहीं ले जाते। यह दृष्टि, यही भावना हमारे जीवन के प्रतिदिन के कर्मो में आ जानी चाहिए। अपने इस गांव में मेरे पड़ोसी के रूप में मेरा नारायण, मेरा प्रभु ही तो निवास करता है। इस गांव को मैं साफ-सुथरा, निर्मल रखूंगा। गीता हमें यह दृष्टि देना चाहती है। हमारे सभी कर्म प्रभु-पूजा ही हो जायें, इस बात का गीता को बड़ा शौक है। गीता जैसे ग्रंथराज को घड़ी आध-घड़ी पूजा से समाधान नहीं। सारा जीवन हरिमय होना चाहिए, यह गीता की उत्कट इच्छा है।

14. गीता पुरुषोत्तम-योग बताकर कर्मयोग जीवन को पूर्णता पर पहुँचाती है। वह सेव्य पुरुषोत्तम, मैं उसका सेवक और सेवा के साधन रूप यह सारी सृष्टि यदि इस बात का दर्शन हमें एक बार हो जाये, तो फिर और क्या चाहिए? तुकाराम कर रहे हैं- झालिया दर्शन करीन मी सेवा। आणीक कांहीं देवा नलग दुर्जे- दर्शन हो जाने पर तेरी सेवा करूंगा। मुझे और कुछ नहीं चाहिए प्रभो! फिर तो अखंड सेवा ही होती रहेगी। तब ‘मै’ जैसा कुछ रहेगा ही नहीं मै-मेरापन सब मिट जायेगा। जो होगा सब परमात्मा के लिए! पर-हितार्थ जीने के सिवा दूसरा विषय ही नहीं रहेगा। गीता बार-बार यही कर रही है कि मैं अपने में से ‘मैं’ को निकालकर हरिपरायण जीवन बनाऊं, भक्तिमय जीवन रचूं। सेव्य परमात्मा, मैं सेवक और साधनरूप यह सृष्टि! परिग्रह का नाम ही कहाँ रहा? जीवन में अब किसी बात की चिंता ही नहीं रही।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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