गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 184

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पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
86. ज्ञान-लक्षण: मैं पुरुष, वह पुरुष, यह भी पुरुष

15. अब तक हमने देखा कि किस तरह कर्म में भक्ति का मिश्रण करना चाहिए; परंतु उमसें ज्ञान भी चाहिए, अन्यथा गीता को संतोष नहीं होगा। परंतु इसका अर्थ यह नही कि ये तीनों चीजें भिन्न-भिन्न हैं। केवल बोलने के लिए हम भिन्न-भिन्न भाषा बोलते हैं। कर्म का अर्थ ही है भक्ति। भक्ति कोई अलग से लाकर कर्म में मिलानी नहीं पड़ती। यही बात ज्ञान की है। यह ज्ञान मिलेगा कैसे? गीता कहती है वह पुरुषोत्तम सेव्य पुरुष और नानारूपधारिणी, नानासाधनदायिनी, प्रवाहमयी यह सृष्टि भी पुरुष ही!

16. ऐसी दृष्टि रखने का अर्थ क्या? सर्वत्र त्रुटिरहित निर्मल सेवाभाव रखना! तुम्हारे पैर की चप्पल चर्र-चूं बोल रही है, जरा उसे तेल दे दो। उसमें भी परमात्मा का ही अंश है, अतः उसे संभालकर रखो। यह सेवा का साधन चरखा, इसमें भी तेल डालो। देखो, यह आवाज दे रहा है, ‘नेति-नेति’- ‘सूत नहीं कातूंगा’- कहता है। यह चरखा, यह सेवा साधन भी पुरुष ही है। इसकी माल, इसका यह जनेऊ भली-भाँति रखो। सारी सृष्टि को चैतन्यमय मानो। इसे जड़ मत समझो। ऊँ कार का सुंदर गान करने वाला यह चरखा क्या जड़ है? यह तो परमात्मा की मूर्ति ही है। भाद्रपद की अमावस्या को हम अहंकार छोड़कर बैल[1] की पूजा करते हैं। बड़ी भारी बात है यह। रोज अपने मन में इस उत्सव का ध्यान रख करके, बैलों को अच्छी हालत में रखकर उनसे उचित काम लेना चाहिए। उत्सव के दिन की भक्ति उसी दिन समाप्त नहीं होनी चाहिए। बैल भी परमात्मा की मूर्ति है। वह हल, खेती के सब औजार अच्छी हालत में रखो। सेवा के सभी साधन पवित्र होते हैं कितनी विशाल है दृष्टि! पूजा करने का अर्थ यह नहीं कि गुलाल, गंधाक्षत और फूल चढायें। बरतनों को कांच की तरफ साफ सुथरा रखना, बरतनों की पूजा है। दीपक को स्वच्छ करना दीपक-पूजा है। हंसिये को तेज करके घास काटने के लिए तैयार रखना उसकी पूजा है। दरवाजे का कब्जा जंग खाये, तो उसे तेल लगाकर संतुष्ट कर देना उसकी पूजा है। जीवन में सर्वत्र इस दृष्टि से काम लेना चाहिए। सेवाद्रव्य उत्कृष्ट और निर्मल रखना चाहिए।

सारांश यह कि मैं अक्षर पुरुष, वह पुरुषोत्तम और साधनरूप यह सृष्टि, सब पुरुष ही, परमात्मा ही। सर्वत्र एक ही चैतन्य रम रहा है। जब यह दृष्टि आ गयी, तो समझ लो कि हमारे कर्म में ज्ञान भी आ गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाराष्ट्र विशिष्ट त्यौहार जिसे ‘पोला’ कहा जाता है।

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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