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दसवां अध्याय
विभूति-चिंतन
51. मानवस्थित परमेश्वर
7. परमेश्वर की बिलकुल पहली मूर्ति जो हमारे पास है, वह है स्वयं हमारी मां। श्रुति कहती है- मातृदेवो भव। पैदा होते ही बच्चे को मां के सिवा और कौन दिखायी देता है? वत्सलता के रूप में वह परमेश्वर की मूर्ति ही वहाँ खड़ी है। उस माता की व्याप्ति को हम बढ़ा लें और वंदे मातरम् कहकर राष्ट्रमाता की और फिर अखिल भू-माता पृथ्वी की पूजा करें। परंतु प्रारंभ में सबसे ऊंची परमेश्वर की पहली प्रतिमा, जो बच्चों के सामने आती है, वह है माता के रूप में। माता की पूजा से मोक्ष मिलना असंभव नहीं है। माता की पूजा क्या है, मानो वत्सलता से खड़े परमेश्वर की ही पूजा है। मां तो एक निमित्तमात्र है। परमेश्वर उसमें अपनी वत्सलता उंड़ेलकर उसे नचाता है। उस बेचारी को मालूम भी नहीं होता कि इतनी माया-ममता भीतर से क्यों उमड़ती है? क्या वह यह हिसाब लगाकर बच्चों को लालन-पालन करती है कि बुढ़ापे में काम आयेगा? नहीं-नहीं, उसने उस बालक को जन्म दिया है। उसे प्रसव-वेदना हुई है। इन वेदनाओं ने उसे उस बच्चे के लिए पागल बना दिया है। वे वेदनाएं उसे वत्सल बना देती हैं। वह प्यार किये बिना रह ही नहीं सकती। वह लाचार है। वह मां मानो निस्सीम सेवा की मूर्ति है। परमेश्वर की यदि कोई सबसे उत्कृष्ट पूजा है, तो वह है, मातृ-पूजा। ईश्वर को ‘माँ’ के नाम से ही पुकारो। ‘माँ’ से बढ़कर और ऊंचा शब्द है कहां? माँ पहला स्थूल अक्षर है। उसमें परमेश्वर देखना सीखो। फिर पिता, गुरु इनमें भी देखो। गुरु शिक्षा देते हैं। वे हमें पशु से मनुष्य बनाते हैं। कितने हैं उनके उपकार! पहले माता, फिर पिता, फिर गुरु, फिर दयालु संत। अत्यंत स्थूल रूप में खड़े इस परमेश्वर को पहले देखो। यदि परमेश्वर यहाँ नहीं दिखायी देगा, तो फिर दीखेगा कहां?
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