गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 104

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दसवां अध्याय
विभूति-चिंतन
50. परमेश्वर-दर्शन की सुबोध रीति

6. यह अपार सृष्टि मानो ईश्वर की पुस्तक है। आंखों पर गहरा पर्दा पड़ने से यह पुस्तक हमें बंद हुई-सी जान पड़ती है। इस सृष्टिरूपी पुस्तक में सुंदर अक्षरों में सर्वत्र परमेश्वर लिखा हुआ है। परंतु वह हमें दिखायी नहीं देता। ईश्वर का दर्शन होने में एक बड़ा विघ्न है। वह यह कि मामूली, सरल, नजदीक का ईश्वर-स्वरूप मनुष्य की समझ में नहीं आता और दूर का प्रखररूप उसे हजम नहीं होता। यदि किसी से कहें कि माता में ईश्वर को देखो, तो वह कहेगा- "क्या ईश्वर इतना सीधा और सरल है?" पर यदि प्रखर परमात्मा प्रकट हुआ, तो उसका तेज तुम सह सकोगे? कुंती की इच्छा हुई कि वह दूर वाला सूर्य मुझे प्रत्यक्ष आकर मिले; परंतु उसके निकट आते ही वह जलने लगी। उसका तेज उससे सहन नहीं हुआ। ईश्वर यदि अपने सारे सामर्थ्य के साथ सामने आकर खड़ा हो जाये, तो हमें पचता नहीं। यदि माता के सौम्यरूप में आकर खड़ा हो जाये, तो जंचता नहीं। पेड़ा-बर्फी पचती नहीं और मामूली दूध रुचता नहीं ये लक्षण हैं फूटी किस्मत के, मरण के, ऐसी यह रूग्ण मनःस्थिति परमेश्वर के दर्शन में बड़ा भारी विघ्न है। इस मनःस्थिति का त्याग करना चाहिए। पहले हम अपने पास के स्थूल और सरल परमात्मा को पढ़ लें और फिर सूक्ष्म और जटिल परमात्मा को पढ़ें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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