सुजान-रसखान रूप-माधुरी दोहा मोहन छबि रसखानि लखि, अब दृग अपने नाहिं। ऐंचे आवत धनुष से, छूटे सर से जाहिं।।51।। या छबि पै रसखानि अब वारौं कोटि मनोज। जाकी उपमा कविन नहिं रहे सु खोज।।52।। संबंधित लेख देखें • वार्ता • बदलेंसुजान-रसखान भक्ति-भावना • कृष्ण का आलौकित्व • अनन्य भाव • मिलन • बाल-लीला • रूप-माधुरी • प्रेम लीला • बंक बिलोचन • मुस्कान माधुरी • कृष्ण सौंदर्य • रूप प्रभाव • कुंज लीला • नटखट कृष्ण • मुरली प्रभाव • कालिय दमन • चीर हरण • प्रेमासक्ति • प्रेम बंधन • नेत्रोपालंभ • प्रेम-वेदन • रास लीला • फाग-लीला • राधा का सौंदर्य • मानवती राधा • सखी शिक्षा • संयोग-वर्णन • वियोग-वर्णन • सपत्नी-भाव • कुबलियापीड़-वध • उद्धव-उपदेश • ब्रज-प्रेम • गंगा महिमा • शिव-महिमा वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह क्ष त्र ज्ञ ऋ ॠ ऑ श्र अः