गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 83

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नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या। समर्पणयोग
41. प्रत्यक्ष अनुभव की विद्या

1. आज मेरे गले में दर्द है। मुझे संदेह है कि मेरी आवाज आप तक पहुँच सकेगी या नहीं। इस समय साधुचरित बड़े माधवराव पेशवा के अंत समय की बात स्मरण आ रही है। यह महापुरुष मरणशय्या पर पड़ा था। कफ बहुत बढ़ गया था। कफ का अतिसार में पर्यवसान किया जा सकता है। अतः माधवराव ने वैद्य से कहा- "ऐसा करिए कि मेरा कफ हट जाये और उसकी जगह अतिसार हो जाये। उससे राम-नाम लेने का मुंह खुल जायेगा।" मैं भी आज परमेश्वर से प्रार्थना कर रहा था। भगवान ने कहा- "जैसा गला चले, वैसा ही बोलता रह।" मैं जो यहाँ गीता सुना रहा हूं, वह किसी को उपदेश देने के लिए नहीं। जो उससे लाभ उठाना हैं, उन्हें अवश्य उससे लाभ होगा; परंतु मैं तो गीता राम-नाम समझकर सुना रहा हूँ। गीता का प्रवचन करते समय मेरी भावना ‘हरि-नाम’ की रहती है।

2. मैं जो यह कर रहा हूं, उसका आज के अध्याय से संबंध है। इस अध्याय में हरि-नाम की अपूर्व महिमा बतायी गयी है। यह अध्याय गीता के मध्य भाग में खड़ा है। सारे महाभारत के मध्य गीता और गीता के मध्य यह नौवां अध्याय! अनेक कारणों से इस अध्याय को पावनता प्राप्त हुई है। कहते हैं। कि ज्ञानदेव ने जब समाधि ली, तो उन्होंने इस अध्याय का जप करते हुए प्राण छोड़ा था। इस अध्याय के स्मरण मात्र से मेरी आंखें छलछलाने लगती हैं और दिल भर आता है। व्यासदेव का यह कितना बड़ा उपकार है! केवल भारतवर्ष पर ही नहीं, सारी मनुष्य-जाति पर उनका यह उपकार है। जो अपूर्व बात भगवान ने अर्जुन को बतायी, वह शब्दों द्वारा प्रकट करने योग्य नहीं थी। परंतु दया भाव से प्रेरित होकर व्यास जी ने इसे संस्कृत भाषा द्वारा प्रकट कर दिया। गूढ़ वस्तु को वाणी रूप दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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