गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 82

Prev.png
आठवां अध्याय
प्रयाण-साधना: सातत्ययोग
40. शुक्ल-कृष्ण गति

18. परमेश्वर पर श्रद्धा रखकर यदि ‘मनसा-वाचा-कर्मणा’ दिन-रात लड़ते रहोगे, तो अंत की घड़ी अतिशय उत्तम होगी। उस समय सब देवता अनुकूल हो जायेंगे। यही बात इस अध्याय के अंत में एक रूपक द्वारा बतायी गयी है। इस रूपक को समझ लीजिए। जिसके मरण के समय आग जल रही है, सूर्य चमक रहा है, शुक्ल पक्ष का चंद्र बढ़ रहा है, उत्तरायण का निरभ्र और सुंदर आकाश फैला हुआ है, वह ब्रह्म में विलीन होता है और जिसकी मृत्यु के समय धुआं फैल रहा है, भीतर-बाहर अंधेरा हो रहा है, कृष्ण पक्ष का चंद्रमा क्षीण हो रहा है, दक्षिणायन का मलिन और अभ्राच्छादित आकाश फैला है, वह फिर से जन्म-मरण के फेरे में पड़ेगा।

19. बहुत से लोग इस रूपक को पढ़कर चक्कर में पड़ जाते हैं। यदि पुण्यमरण की इच्छा हो, तो अग्नि, सूर्य, चंद्र, आकाश, इन देवताओं की कृपा रहनी चाहिए। अग्नि कर्म का चिह्न, यज्ञ का चिह्न है। जीवन के अंतिम क्षण में भी यज्ञ की ज्वाला जलती रहनी चाहिए। न्यायमूर्ति रानडे कहते थे- "सतत कर्तव्य करते हुए मौत आ जाये, तो वह धन्य है। कुछ-न-कुछ पढ़ रहे हैं, कोई काम कर रहे है- ऐसी हालत में मैं मरूं, तो भर पाया।" ‘ज्वाला जलती रहे’, इसका यह अर्थ है। मरण-समय में भी कर्म करते रहें।- यह अग्नि की कृपा है। सूर्य की कृपा का अर्थ है कि बुद्धि की प्रभा अंत तक चमकती रहनी चाहिए। चंद्र की कृपा का अर्थ यह है कि मृत्यु के समय पवित्र भावना बढ़ती जानी चाहिए। चंद्र मन का, भावना का- देवता है। शुक्ल पक्ष के चंद्र की तरह मन की भक्ति, प्रेम, उत्साह, परोपकार, दया आदि शुद्ध भावनाओं का पूर्ण विकास होना चाहिए। आकाश की कृपा यानि हृदयाकाश में आसक्तिरूपी बादल बिलकुल नहीं रहने चाहिए। एक बार गांधी जी ने कहा- "मैं दिन-रात चरखा-चरखा चिल्ला रहा हूँ। चरखे को बड़ी पवित्र वस्तु मानता हूँ। परंतु अंत-समय में उसकी भी वासना नहीं रहनी चाहिए। जिसने मुझे चरखे की प्रेरणा दी है, वह स्वयं चरखे की चिंता करने में सर्वथा समर्थ है। चरखा अब दूसरे भले-भले लोगों के हाथ में चला गया है। चरखे की चिंता छोड़कर मुझे परमात्मा से मिलने को तैयार रहना चाहिए।" सारांश यह कि उत्तरायण का अर्थ है, हृदय में आसक्ति रूपी बादल का न रहना।

20. अंतिम सांस तक हाथ से कोई-न-कोई सेवा-कार्य हो रहा है, भावना की पूर्णिमा चमक रही है, हृदयाकाश में जरा भी आसक्ति नहीं है, बुद्धि सतेज है- इस तरह जिसकी मृत्यु होगी, वह परमात्मा में लीन हुआ समझो। ऐसा परम मंगलमय अंत लाने के लिए रात-दिन सावधान और दक्ष रहकर लड़ते रहना चाहिए। एक क्षण के लिए भी मन पर अशुभ संस्कार न पड़ने देना चाहिए। ऐसा बल मिलता रहे, इसके लिए परमात्मा से सतत प्रार्थना करते रहना चाहिए। नाम-स्मरण, तत्त्व-स्मरण पुनः-पुनः करते रहना चाहिए।[1]


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रविवार, 10-4-32

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः