श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पंद्रहवाँ अध्याय
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥6॥
उस (आत्मज्योति)-को न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसको प्राप्त होकर फिर नहीं लौटते, वह मेरा परम धाम है।।6।।
तद् आत्मज्योतिः न सूर्यो भासयते न शंशाकों न पावकः च। ज्ञानम् एव हि सर्वस्य प्रकाशकम्। बाह्यानि तु ज्योतींषि विषयेन्द्रियसम्बन्धविरोधितमोनिरसनद्वारेण उपकारकाणि।
उस आत्मज्योति को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्रि ही। क्यों कि यथार्थ में ज्ञान ही सबका प्रकाशक है। बाह्य ज्योतियाँ तो केवल विषय और इन्द्रियों के सम्बन्ध के विरोधी अन्धकार का नाश करने वाली हैं, इस कारण ज्ञान में सहकारी हेतु हैं।
अस्य च प्रकाशन को योगः, तद्विरोधि च अनादिकर्म, तन्नितर्वनं च उक्तं भगवत्प्रपत्तिमूलम् असंगादि।
इस आत्मज्योति का प्रकाशन है योग, अनादिकालीन कर्म ही उसके विरोधी हैं, और पहले बताया हुआ भगवत्-शरणागति मूलक अनासक्ति आदि ही उन कर्मों को नाश करने का उपाय है।
यद् गत्वा पुनः न निवर्तन्ते तत् परमं धाम परमं ज्योतिः मम मदीयं मद्विभूतिभूतो ममांश इत्यर्थः।
जिसको पाकर पुरुष वापस नहीं लौटते, वह परमधाम-परमज्योति मेरी है। मेरी विभूतिरूप है अर्थात् मेरा अंश है।
आदित्यादीनाम् अपि प्रकाशकत्वेन तस्य परमत्वम्। आदित्यादीनि हि ज्योतींषि न ज्ञानज्योतिषः प्रकाशकानि, ज्ञानम्, एव हि सर्वस्य प्रकाशकम्।।6।।
आदित्यादि ज्योतियों की भी प्रकाशक होने से उस आत्मज्योति को उत्कृष्ट माना गया है। क्योंकि आदित्यादि ज्योतियाँ ज्ञानज्योति की प्रकाशित नहीं हैं; बल्कि ज्ञान ही सबका प्रकाशक है।।6।।
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