|
श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
तेरहवाँ अध्याय
एवं भोक्तृभोग्यरूपेण अवस्थितयोः सर्वावस्थावस्थितयोः चिदचितोः परमपुरुषशरीरतया तन्नियाम्यत्वेन तदपृक्स्थितिं परमपुरुषस्य च आत्मत्वम् आहुः काश्चन श्रुतयः- ‘यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद, यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवी न वेद, यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयमि’[1] इत्यारभ्य ‘य आत्मनि तिष्ठ-न्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद, यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः’[2]। तथा ‘यस्य पृथिवी शरीरम्, यः पृथिवीमन्तरे सञ्चरन् यं पृथिवी न वेद’ इति आरभ्य ‘यस्याक्षरं शरीरं योऽक्षरमन्तरे सञ्चरन् यमक्षरं न वेद’ ‘यस्य मृत्युः शरीरं यो मृत्युमन्तरे संचरन् यं मृत्युर्न वेद। स एष सर्वभूतान्तरात्मापहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः’[3] अत्र मृत्युशब्देन तमःशब्दवाच्यं सूक्ष्मावस्थम् अचिद्वस्तु अभिधीयते। अस्याम् एव उपनिषदि ‘अव्यक्तमक्षरे लीयते अक्षरं तमसि लीयते। तमः परे देव एकीभूत तिष्ठति’[4] इति वचनात् ‘अन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा’[5] इति च।
इस प्रकार भोक्ता और भोग्य के रूप में सभी अवस्थाओं में स्थित चेतन और जड दोनों ही तत्त्व परमपुरुष के शरीर होने के कारण उसके द्वारा नियमन करने योग्य हैं। इसलिये इन दोनों की भगवान् से अपृथक् स्थिति और परमपुरुष भगवान् के आत्मत्व का वर्णन कितनी ही श्रुतियाँ इस प्रकार करती हैं- ‘जो पृथिवी में रहकर पृथिवी की अपेक्षा अन्तरंग है, जिसको पृथिवी नहीं जानती। पृथिवी जिसका शरीर है। जो पृथिवी के भीतर रहकर उसका नियमन करता है।’ यहाँ से लेकर ‘जो आत्मा में रहकर आत्मा की अपेक्षा अन्तरंग है, जिसको आत्मा नहीं जानता, आत्मा जिसका शरीर है, जो आत्मा के भीतर रहकर उसका नियमन करता है,’ यहाँ तक तथा ‘पृथिवी जिसका शरीर है, जो पृथिवी के भीतर विचरता है, जिसको पृथिवी नहीं जानती’ यहाँ से लेकर ‘अक्षर जिसका शरीर है, जो अक्षर के भीतर विचरता है, जिसको अक्षर नहीं जानता। मृत्यु जिसका शरीर है, जो मृत्यु के भीतर विचरता है, जिसको मृत्यु नहीं जानता। यह सब भूतों का अन्तरात्मा सब पापों से रहित एक दिव्य देव नारायण है।’ इस श्रुति में ‘मृत्यु’ नाम से ‘तमः’ शब्द की अर्थभूत सूक्ष्म अवस्था में स्थित जड प्रकृति कही गयी है। क्योंकि इसी उपनिषद् में ‘अव्यक्त अक्षर में लय होता है, अक्षर तम में लय होता है, तम परम देव में एक होकर रहता है।’ ऐसा कहा है। तथा ‘जीवों का शासक सबका आत्मा अन्तर में प्रविष्ट है।’ यह भी कहा है।
|
|