हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 94

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
हित वृन्‍दावन

श्री हरिराम व्‍यास ने वृन्‍दावन को प्रेम की राजधानी बतलाया है जिसके ‘राजा नायक शिरोमणि श्री श्‍याम सुन्‍दर और तरुणि-मणि श्री राधिका है’। पाताल से वैकुंठ तक के सब लोक इस राजधानी के थाने हैं। छयानवै कोटि मेघ वृन्‍दावन के बागों को सींचते हैं और चारों प्रकार की मुक्ति वहाँ पानी भरती रहती है। सूर्य-चन्‍द्र वहाँ के पहरेदार हैं, पवन खिदमतगार है, इन्दिरा चरणदासी है और निगमवाणी भाट हैं। धर्म वहाँ का कोतवाल है ओर सनकादि ज्ञानी चार गुप्‍तचर हैं। सतोगुण वहाँ का द्वार पाल है, काल राज-बन्‍दी है, कर्म दण्‍डदाता है और काम-रति सुख वहाँ की ध्‍वजा है। वहाँ कनक और मरकत-मणि की भूमि है ओर कुसुमति कुंज-महल में कमनीय शयनीय नित्‍य रचना हो रही है। यह स्‍थान सबके लिये अगम है। यहाँ के राजा-रानी कभी वियुक्त नहीं होते और व्‍यासदास इस महल में पीकदानी लिये हुए सदैव उपस्थित रहते हैं।‘

नव कुँवर चक्र चूडा नृपति साँवरौ राधिका तरुणि मणि पट्टरानी।
शेष-गृह आदि बैकुंठ पर्यंत सब लोक थानैत, बन राजधानी।।
मेघ छ्यानवै कोटि बाग सींचत जहाँ, मुक्ति चारौं जहाँ भरत पानी।
सूर-ससि पाहरू, पवन जन, इ‍दिरा चरणदासी, भाट निगम बानी।।
धर्म कुतवाल, शुक सूत नारद चारु फिरत चर चार सनकादि ज्ञानी।
सतोगुन पौरिया, काल बँधुआ, कर्म डाँडिये, काम-रति सुख निसानी।
कनक मर्कत धरनि कुंज कुसुमति महल मध्‍य कमनीन शयनीय ठानी।
पल न बिछु रत दोऊ, तहाँ नहिं जात कोऊ, व्‍यास महलनि लियें पीकदानी।।[1]

कृष्‍णदासजी कहते है- ‘जहाँ प्रत्येक कुंज में सुखद शयनीय की रचना हो रही है, जहाँ प्रत्‍येक कुंज प्रेम का अयन है, जहाँ प्रत्‍येक कुंज में प्रेम -संयोग हो रहा है, जहाँ प्रत्‍येक कुंज में श्रृंगार की नित्य-नूतन सामग्री सजी हुई है, जहाँ प्रत्‍येक कुंज अत्‍यन्‍त सुवासित है, जहाँ कुंज-कुंज में मणिजटित रासमंडल विद्यमान हैं, जहाँ कुंज-कुंज में सहचरियों के समूह सेवा में नियुक्त हैं, श्रीवृन्‍दावन-रानी का वह अभिराम धाम वृन्‍दावन शोभा से झलमला रहा है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. व्‍या. वा. 46

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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