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प्रस्तावना
राधावल्लभीय सिद्धान्त के सम्बन्ध में इस सम्प्रदाय के साधन-सम्पन्न अनुयायिओं को छोड़कर अन्य लोगों को चाहे वह सम्प्रदाय के अन्दर हैं या बाहर, बहुत कम मालूम है। इस सम्प्रदाय के पास अपना एक विपुल साहित्य है जिसका अधिकांश व्रज-भाषा-गेय-काव्य के रूप में है। पिछले कई वर्षों में इस साहित्य के एक बहुत छोटे अंश का प्रकाशन हुआ है जिसको देख कर साहित्यिकों एवं धार्मिक रुचि के व्यक्तियों का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुआ है। अनेक विद्वान इस साहित्य की ‘खोज’ करने के लिये उत्सुक हैं, किन्तु एक तो, इसका अधिक भाग अप्रकाशित है ओर हर-एक को प्राप्त नहीं होता। दूसरे, इस सम्प्रदाय का कोई ऐसा आलोचनात्क सिद्धान्त ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है जो सम्प्रदाय के साहित्य के मूल्यांकन में सहायक हो सके। ‘सेवक-वाणी’ इस सम्प्रदाय का प्रधान प्रकरण-ग्रन्थ है और प्रकाशित भी है, किन्तु उसमें जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है उन्हें श्री सेवक जी के बाद में होने वाले रसिक संतों की दृष्टि से देखे बिना ‘सेवकवाणी’ का सिद्धान्त हृदयंगम नहीं होता और न इन रसिक संतों की वाणियों की रस-दृष्टि समझ में आती है। प्रस्तुत पुस्तक में सम्पूर्ण उपलब्ध साहित्य को दृष्टि में रख कर सम्प्रदाय के सिद्धान्त की आलोचना की गई है, पुस्तक का दृष्टिकोण धार्मिक-साहित्यिक है। इसकी कृतार्थता, इसके द्वारा, साहित्यिकों की ‘खोज’ एवम उपासकों के उपासना-मार्ग के सरल बनने में है।
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