श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
प्रेम और रूप
वृन्दावन-रस के रसिक सौन्दर्य को रूप कहते हैं। रूप से इनका तात्पर्य आकृतिवान सौन्दर्य से है। प्रेम और सौन्दर्य आकृति-हीन भी होते हैं, जैसे प्रेम-वासना और स्वर-सौन्दर्य किन्तु आकृति-हीन प्रेम-वासना आकृतिवान प्रिय-पदार्थ के भोग से ही निबिड़ बनती अहि और सुंदर रमणी के कंठ से निकली हुई स्वर-लहरी ही स्वर-सौन्दर्य की निबड़ अनुभूति कराती है। अत: प्रेम और सौन्दर्य की निबिद् अनुभूतियाँ आकृति-सापेक्ष होती हैं। इसके विरुद्ध विज्ञानानंद आकृति हीन होता है, क्योंकि उसमें ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान का लय हो जाता है। प्रेमानंद किंवा प्रेम-सौनदर्यानंद में भोवता-भोग्य सदैव प्रकाशित रहकर उसको आस्वादनीय बनाये रखते है। विज्ञानानंद कभी आस्वाद्य किंवा रस नहीं बनता , इसलिये उसमें आकृति का निषेध किया जा सकता है। आस्वाद के लिये भोक्ता-भोग्य एवं उनकी आकृति और गुण अनिवार्य हैं और इनको मनुष्य-कल्पित अथवा माया-कल्पित कहकर छोड़ा नहीं जा सकता। रसरूपता को प्राप्त होकर आकृति और गुण उस महा-आनंद के अंग बन जाते हैं जिसको सभी प्रेमीगण विज्ञानानंद से कहीं अधिक श्रेष्ठ बतलाते हैं। प्रेमियों ने तो ब्रह्मानंद को प्रेमानंद का सबसे बड़ा आवरण माना है; क्योंकि प्रेमानंद के आधारभूत आकृति और गुण ब्रह्मानंद में माया-कल्पित कह कर छोड़ दिये जाते हैं- ब्रह्म जोति तेज जहाँ, जोगेस्वर घरैं ध्यान। बिनु रसिकनि वृन्दाविपिन, को है सकत निहार। आगे के पृष्ठों में नित्य-प्रेम-विहार के चारों अंगो- श्री राधा, श्यामसुन्दर, सहचरी और श्री वृन्दावन-के प्रेम-रूप का परिचय, रसिक संतों की दृष्टि से, देने की चेष्टा करेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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