श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
प्रेम और रूप
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रेम और सौन्दर्य का ग्रहण एक काम-वृत्ति के द्वारा ही होता है। प्रेम को तो सभी मनोवैज्ञानिक काम-वृत्ति का परिपाक मानते हैं। सौन्दर्य को इस वृत्ति से संबधित नहीं किया गया है किन्तु मनुष्य रचित सौंन्दर्य- जैसे कला कृतियों, संगीत और काव्य के सौन्दर्य-को कई आधुनिक मनोवैज्ञानिक काम वृत्ति का ही विकास मानते हैं। अब रह जाता है प्राकृतिक सौन्दर्य और नैतिक गुणों का सौन्दर्य। इनका ग्रहण भी सहृदय व्यक्ति ही करता है। अत: यह दोनों भी मनुष्य की सहज प्रेम वृत्ति से ही संबंधित मानने चाहिये। प्रेम और सौन्दर्य के इस नित्य एवं सहज साहचर्य को देखकर राधावल्लभीय विचारकों ने निर्णय किया है कि यह दोनों किसी एक ही तत्व की दो अभिव्यक्तियाँ हैं और वह तत्व परात्पर प्रेम किंवा ‘हित’ है। परात्पर प्रेम ही प्रेम और सौन्दर्य के दो रूपों में नित्य व्यक्त है। एक ही तत्व के दो रूप होने के कारण यह दोनों स्वभावत: परस्पर-संबधित हैं। इन दोनों में भोक्ता-भोग्य का संबंध माना गया है। प्रेम भोक्ता है और सौन्दर्य भोग्य। प्रेम और सौन्दर्य का प्रथम परिचय हमको लोक में होता है। यहाँ प्रत्यक्ष रूप से सौन्दर्य भोग्य होता है और मनुष्य की प्रेम-वृत्ति उसकी भोक्ता। यह दोनों सहज-रूप से एक दूसरे की ओर आकृष्ट भी रहते हैं, किन्तु देश-काल-पात्र की स्थूल मर्यादायें यहाँ इस बात को स्पष्ट नहीं होने देतीं कि ये दोनों एक ही प्रेम-तत्व के दो रूप हैं और स्वभावत: एक-दूसरे से नित्य-संबंधित हैं। कलाकार, कवि और गायक अपनी कृतियों में, प्रतिभा के बल से, स्थूलता का अतिक्रमण करके प्रेम और सौन्दर्य को एक सूत्र में ग्रथित करने की चेष्टा करते हैं। ताजमहल के कलाकार ने शाहजहाँ के प्रेम और मुमताज बेगम के सौन्दर्य को मिलाकर इस अनुपम कला कृति की रचना की है, इसीलिये, इसके दर्शन से एक अखंड प्रेम-सौन्दर्य गरिमा की अनुभूति हमको होती है। कवि और गायक की भी वही कृतियाँ उत्तम मानी जाती हैं जिनमें प्रेम के साथ सौन्दर्य की और सौन्दर्य के साथ प्रेम की व्यंजना होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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