श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-प्रमेय
जाकौ सब आश्रय करैं सो आश्रित सुखधाम। संसार में श्री हित हरिवंश आराधक स्वरूप में प्रगट हुए थे किन्तु उनको अपने ही आराध्य-स्वरूप की आराधना करते देखा गया था। उनके शिष्य श्री हरिराम व्यास ने उनको ‘रस और रसिकों का आधार रूप’ कहा है एवं सेवक जी ने उनको पूर्ण हित का स्वरूप मानकर उनके रस-सिद्धान्त की व्याख्या की है एवं उस सिद्धान्त को उनके स्वरूप को ही सहज विकास बतलाया है। सेवक वाणी के प्रथम प्रकरण में हित-प्रभु द्वारा सब प्रकार की भक्तियों का निर्विरोध विचार दिखलाकर सेवक जी अन्त में कहते हैं ‘अब मैं उनके अपने सहज-धर्म का कथन करता हूँ। यह हति-धर्म वहाँ स्थित है जहाँ प्रेम का सागर बहता रहता है और प्रेम-स्वरूप वृन्दावन नित्य प्रगट रहता है। सब प्रकार की भक्ति इस धर्म का साधन हैं और इस धर्म के रूप में श्री हितप्रभु का अपना अवर्णनीय प्रेम-वैभव ही प्रगट होता है। यह धर्म सम्पूर्ण रूप से श्रीराधा के युगल चरणों के आश्रित हैं। इसके कथन के द्वारा मैं श्री हरिवंश के प्रेम-विलास का यश वर्णन कर रहा हूँ और उन ही का गान करूंगा।‘[2] लगभग सभी वैष्णव-सम्प्रदायों में सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य को उस सम्प्रदाय के आराध्य- स्वरूप के समान सम्मान प्राप्त है और कहीं-कहीं आराध्य-तत्व से आचार्य का गौरव अधिक माना जाता है एवं उनके नाम का स्मरण और उनके रूप का ध्यान भी किया जाता है। गौड़ीय वैष्णव-सम्प्रदाय में व्रजेन्द्र नंदन की लीला, धाम, परिकर आदि की भाँति श्री चैतन्य की लीला, धाम, परिकरादि भी बतलाये गये हैं एवं उनकी उपासना का भी विधान किया गया है। किन्तु किसी भी सम्प्रदाय के सिद्धान्त की रचना उस सम्प्रदाय के संस्थापक के स्वरूप को लेकर नहीं हुई है। कोई भी सिद्धान्त अपने द्दष्टा के स्वरूप-वैभव के रूप में उपस्थित नही हुआ है। इसीलिये, गुरु के ‘पारम्य‘ में संम्पूर्ण श्रद्धा रखते हुए गौड़ीय-संप्रदाय के सिद्धान्त का विकास इष्ट को लेकर ही किया गया है। इस दिशा में हित-सम्प्रदाय की स्थिति सबसे विलक्षण है और इस बात को समझ लेना इस सम्प्रदाय के सिद्धान्त को समझने में बड़ा सहायक होता है। सेवक जी ने श्रीहित हरिवंश की लीला का भिन्न रूप से कहीं वर्णन नहीं किया, उन्होंने श्री श्यामा-श्याम की केलि को ही हित-स्वरूप श्री हरिवंश की केलि बतलाया है। उनकी दृष्टि में एक हित ही भोक्ता, भोग्य और प्रेरक प्रेम के नित्य-प्रगट रूप में क्रीडा कर रहा है।[3] इस सम्प्रदाय की उपासना-पद्धति में, इसीलिये, श्री हरिवंश-नाम को इतना महत्व प्राप्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज