हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 48

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

Prev.png
सिद्धान्त-प्रमेय


जाकौ सब आश्रय करैं सो आश्रित सुखधाम।
श्री हित आराधन करत यातें राधानाम।।[1]

संसार में श्री हित हरिवंश आराधक स्‍वरूप में प्रगट हुए थे किन्तु उनको अपने ही आराध्‍य-स्‍वरूप की आराधना करते देखा गया था। उनके शिष्‍य श्री हरिराम व्‍यास ने उनको ‘रस और रसिकों का आधार रूप’ कहा है एवं सेवक जी ने उनको पूर्ण हित का स्‍वरूप मानकर उनके रस-सिद्धान्‍त की व्‍याख्‍या की है एवं उस सिद्धान्‍त को उनके स्‍वरूप को ही सहज विकास बतलाया है। सेवक वाणी के प्रथम प्रकरण में हित-प्रभु द्वारा सब प्रकार की भक्तियों का निर्विरोध विचार दिखलाकर सेवक जी अन्‍त में कहते हैं ‘अब मैं उनके अपने सहज-धर्म का कथन करता हूँ। यह हति-धर्म वहाँ स्थित है जहाँ प्रेम का सागर बहता रहता है और प्रेम-स्वरूप वृन्दावन नित्य प्रगट रहता है। सब प्रकार की भक्ति इस धर्म का साधन हैं और इस धर्म के रूप में श्री हितप्रभु का अपना अवर्णनीय प्रेम-वैभव ही प्रगट होता है। यह धर्म सम्‍पूर्ण रूप से श्रीराधा के युगल चरणों के आश्रित हैं। इसके कथन के द्वारा मैं श्री हरिवंश के प्रेम-विलास का यश वर्णन कर रहा हूँ और उन ही का गान करूंगा।‘[2]

लगभग सभी वैष्‍णव-सम्‍प्रदायों में सम्‍प्रदाय के संस्‍थापक आचार्य को उस सम्‍प्रदाय के आराध्‍य- स्‍वरूप के समान सम्‍मान प्राप्‍त है और कहीं-कहीं आराध्‍य-तत्‍व से आचार्य का गौरव अधिक माना जाता है एवं उनके नाम का स्‍मरण और उनके रूप का ध्‍यान भी किया जाता है। गौड़ीय वैष्‍णव-सम्‍प्रदाय में व्रजेन्‍द्र नंदन की लीला, धाम, परिकर आदि की भाँति श्री चैतन्‍य की लीला, धाम, परिकरादि भी बतलाये गये हैं एवं उनकी उपासना का भी विधान किया गया है। किन्‍तु किसी भी सम्‍प्रदाय के सिद्धान्‍त की रचना उस सम्प्रदाय के संस्‍थापक के स्‍वरूप को लेकर नहीं हुई है। कोई भी सिद्धान्‍त अपने द्दष्‍टा के स्‍वरूप-वैभव के रूप में उपस्थित नही हुआ है। इसीलिये, गुरु के ‘पारम्‍य‘ में संम्‍पूर्ण श्रद्धा रखते हुए गौड़ीय-संप्रदाय के सिद्धान्‍त का विकास इष्‍ट को लेकर ही किया गया है। इस दिशा में हित-सम्‍प्रदाय की स्थिति सबसे विलक्षण है और इस बात को समझ लेना इस सम्‍प्रदाय के सिद्धान्‍त को समझने में बड़ा सहायक होता है। सेवक जी ने श्रीहित हरिवंश की लीला का भिन्‍न रूप से कहीं वर्णन नहीं किया, उन्‍होंने श्री श्‍यामा-श्‍याम की केलि को ही हित-स्‍वरूप श्री हरिवंश की केलि बतलाया है। उनकी दृष्टि में एक हित ही भोक्‍ता, भोग्‍य और प्रेरक प्रेम के नित्‍य-प्रगट रूप में क्रीडा कर रहा है।[3] इस सम्‍प्रदाय की उपासना-पद्धति में, इसीलिये, श्री हरिवंश-नाम को इतना महत्‍व प्राप्‍त है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भजनदास जी
  2. से. वा. 1- 14
  3. से. वा. 2-1,2

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः