हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 43

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमेय


इस नित्‍य-नूतन आरंभ के अनादित्‍व का लीला में दर्शन करते हुए श्री ध्रुवदास गान करते हैं ‘अद्भुत युगल अनादि अनंत रूप से प्रेमविहार करते रहते हैं, किन्‍तु आज तक इनमें परस्‍पर पहिचान नहीं हो पाई है ! कारण यह हे कि नये-नये प्रकार से इनकी छवि-कांति नई-नई होती रहती है और नई नवला एवं नवीन प्रेम-विहारी का प्रकाश होता रहता है। यह दोनो चित्‍त लगाकर एक दूसरे के मुख को देख रहे हैं एवं सर्वस्‍व हारकर प्रीति रस में पड़े हैं। प्रेम की यह अकथनीय कथा है कि यह दोनों नित्‍य-नूतन बनकर सदैव एक दूसरे के साथ रहते हैं और नित्‍य–नूतन मिल के आनंद में मंद हास्‍य करते रहते हैं-

न आदि न अंत विलास करैं दोउ लाल प्रिया में भई न चिन्‍हारी।
नई-नई भाँति, नई छवि कांति, नई नवला, नव नेह विहारी।।
रहे मुख चाहि, दिये चित आहि, पर रसरीति सु सर्वसु हारी।
रहैं इक पास, करैं मृदु हास, सुनौ ध्रुव प्रेम अकत्‍थ कथारी।।

प्रेम का यह नित्‍य–नूतन आरंभ किस प्रकार घटित होता है, इसको स्‍पष्‍ट करते हुए श्री भजनदास कहते हैं ‘प्रेमानुभव दो के, भोक्‍ता–भोग्‍य के बिना हो नहीं सकता और इन दोनों के मिलकर एक बन जाने का नाम ही प्रेमानुभव है। अद्धय-हित दो के बिना बन नहीं सकता और यह दोनो एक दूसरे में डूब कर अद्वय-हित कहलाते हैं। विवश (अपने में डूबा हुआ) हित ही श्रद्धय-हित है, एक से दो होन उसकी चैतन्‍य स्थिति है। श्रद्वय-हित, दो बन कर अपना अनुभव करने के लिये, सदैव व्‍याकुल बना रहता है और क्षण-क्षण में चैतन्‍य होता रहता है। श्रद्वय-हित का नित्‍य–नूतन दो के रूप में दिखलाई देना ही उसका नित्‍य प्रगट होना है।’

इक हित द्वै बिनु होत नहि दोऊ मिलि इक होइ।
विवस एक हित जानिये चेतन इक तें दोइ।।
जब हित व्‍याकुल होत फिरि आवत सुधि तन मांहि।
यह प्रागट नित होत जहाँ एकहि द्वै दरसाहिं।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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