श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-प्रमेय
न आदि न अंत विलास करैं दोउ लाल प्रिया में भई न चिन्हारी। प्रेम का यह नित्य–नूतन आरंभ किस प्रकार घटित होता है, इसको स्पष्ट करते हुए श्री भजनदास कहते हैं ‘प्रेमानुभव दो के, भोक्ता–भोग्य के बिना हो नहीं सकता और इन दोनों के मिलकर एक बन जाने का नाम ही प्रेमानुभव है। अद्धय-हित दो के बिना बन नहीं सकता और यह दोनो एक दूसरे में डूब कर अद्वय-हित कहलाते हैं। विवश (अपने में डूबा हुआ) हित ही श्रद्धय-हित है, एक से दो होन उसकी चैतन्य स्थिति है। श्रद्वय-हित, दो बन कर अपना अनुभव करने के लिये, सदैव व्याकुल बना रहता है और क्षण-क्षण में चैतन्य होता रहता है। श्रद्वय-हित का नित्य–नूतन दो के रूप में दिखलाई देना ही उसका नित्य प्रगट होना है।’ इक हित द्वै बिनु होत नहि दोऊ मिलि इक होइ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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