श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-प्रमाण-ग्रन्थ
शुक मुख वचन जु श्रवन सुनावहु। श्रीमद्भागवत का प्रामाण्य सामान्य भक्ति-सिद्धान्त के लिये एवं श्री हरिवंश की वाणी का प्रामाण्य उसकी विशिष्ट रस-रीति के लिये स्वीकार किया गया है। जिस प्रकार श्रीमद्भागवत को निगम कल्पतरु का फल माना जाता है- ‘निगम कल्पतरोर्गलित फल’, उसी प्रकार श्रीहित हरिवंश की वाणी को निगमों का सार सिद्धान्त माना गया है- ‘निगम सार सिद्धान्त संत विश्राम मधुरवर’। सेवक जी ने बतलाया है कि ‘पृथ्वी को म्लेच्छों के भार से पीड़ित एवं संसार को श्रुति-पथ विमुख देख कर श्रीहित हरिवंश ने वेदों की सार-विधि का उद्धार किया।' धर्म रहित जानी सब दुनी-म्लेच्छनि भार दुखित मेदिनी। इस प्रकार, वाणी के प्रामाण्य के स्वीकार में, वेदों के प्रामाण्य को स्वीकार किया गया है। वेद परम-तत्व को ‘रस’ कह कर विरत हो जाता है। ‘वाणी’ उस रस को रसिकों के आस्वाद के लिये प्रत्यक्ष करती है। वेद में जिस तथ्य का संकेत मात्र है, वही ‘वाणी’ में पल्लवित और पुष्पित हुआ है। ‘वाणी’ वेद के अनुकूल है, अनुरूप नहीं और इसीलिये ‘वाणी’ में प्रत्यक्ष किये गये रस-स्वरूप के लिये ‘वाणी’ ही अन्तिम प्रमाण मानी जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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