हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 129

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
श्रीराधा

हम देख चुके हैं कि राधा सुधा-निधि के अधिकांश श्‍लोकों की रचना देव बन में हुई थी। श्रीहित हरिवंश सं० 1559 से सं० 1590 तक देवबन में रहे थे। यह वह काल था जब गौड़ीय गोस्‍वामियों की भक्ति–रस संबंधी रचनायें अरचित थीं ओर सूर-सागर के पदों का निर्माण हो रहा था। पुष्टि मार्ग में श्रीविट्ठलनाथ गोस्‍वामी के गद्दी पर प्रतिष्ठित होने के बाद श्रीराधा का महत्‍व बढ़ा था। श्रीवल्‍लभाचार्य ने सूरदासजी को श्रीमद्भागवत के दशम स्‍कंध की अनुक्रमणिका सुनाकर श्रीकृष्‍ण लीला का गान करने की आज्ञा दी थी। दशम स्‍कंध में श्रीराधा का स्‍पष्ट उल्‍लेख कहीं नहीं है और न श्रीवल्‍लभाचार्य की कोई श्रीराधा–संबंधी रचना उपलब्‍ध है। अत: अनुमान होता है कि सूर-सागर के श्रीराधा से संबंधित पदों की रचना श्रीविट्ठलनाथ के पदारूढ़ होने के बाद हुई है। श्रीवल्‍लभाचार्य का गोलोकवास सं० 1587 में हुआ था और श्रीहित हरिवंश के वृन्‍दावन आगमन के लगभग समकाल में, श्रीविट्ठलनाथ ने पुष्टि संप्रदाय की बागडोर सँभाली थी।

श्रीहित हरिवंश के संपूर्ण जीवन का एक मात्र लक्ष्‍य था श्रीराधा के असाधारण-साधारण-भिन्न-स्‍वरूप की प्रतिष्ठा करना। इसके लिये उनके द्वारा किये गये अनेक कार्यों में एक कार्य वृन्‍दावन में ‘सेवाकुंज’ की स्‍थापना करना भी था जहाँ उन्‍होंने राधिका-पीठ स्‍थापति की है। इस पीठ पर ही वह चित्र विराजमान है जिसमें श्रीकृष्‍ण श्रीराधा के चरणों का संवाहन कर रहे हैं। संभवत: इस चित्र का दर्शन करके ही रसखान ने यह प्रसिद्ध सवैया कहा था;

ब्रह्म मैं ढूढ़यो पुरानन-गानन, वेद रिचा सुनि गौगुने चायन।
दैख्‍यौ सुन्‍यौ कबहूँ न कहूँ वह कैसे सरूप और कैसे सुभायन।।
टेरत हेरत हारि परयौ, रसखान बतयो न लोग लुगायन।
दैख्‍यौ दुरयौ वह कुंज-कुटीर में बैठयौ पलोटत राधिका पाँयन।।

इसी प्रकार, श्रीराधावल्‍लभ जी के स्‍वरूप के साथ उन्‍होंने श्रीराधा की प्रतिमा न रखकर उनकी गादी स्‍थापित की। श्री राधा हितप्रभु की गुरु थीं और गुरु की गादी-स्‍थापन का विधान शास्‍त्रों में पाया जाता है। कहा जाता है कि हितप्रभु के बाद, वृन्‍दावन के अनेक मंदिरों में श्रीराधा की गादी स्‍थापित हो गई थी किन्‍तु बाद में हटा दी गई। अब भी बाँके विहारी जी और राधामरणजी के प्रसिद्ध मंदिरों में श्रीराधा की गादी स्‍थापित है। राधावल्‍लभीय सेवा संबंधी ग्रन्‍थों में गादी के निर्माण आदि की पूरी विधि दी हुई है, यह हम आगे देखेंगे।

हिताचार्य की श्रीराधा अपने अद्भुत प्रेम-रूप और गुणों के कारण श्रीकृष्‍णाराध्‍या हैं और गुरु-रूपा हैं। उनकी यह दो विशेषताएँ उनको उनके अन्‍य स्‍वरूपों से भिन्न बनाती हैं। यह दोनों विशेषताएँ नित्‍य प्रेम-विहार में भी सुस्‍पष्ट दिखलाई देती हैं और इनही को हितप्रभु ने अपनी सेवा-पद्वति में प्रदर्शित किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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