सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
पंद्रहवाँ अध्याय(पुरुषोत्तम योग)इस संसार में क्षर (नाशवान्, जड़) और अक्षर (अविनाशी, चेतन)- ये दो प्रकार के ही पुरुष हैं। संपूर्ण प्राणियों के शरीर ‘क्षर’ और जीवात्मा ‘अक्षर’ कहा जता है। इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो ‘परमात्मा’ नाम से कहा गया है। वे अविनाशी परमात्मा ही तीनों लोकों में प्रवेश करके संपूर्ण प्राणियों का भरण-पोषण करते हैं। वह उत्तम पुरुष परमात्मा मैं (साकाररूप से प्रकट श्रीकृष्ण) ही हूँ। कारण कि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिए पुराण, स्मृति आदि शास्त्रों में तथा वेदों में मैं ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हूँ। हे भारत! इस प्रकार जो मोहरहित भक्त मुझे ‘पुरुषोत्तम’ जानकर मेरे सम्मुख हो जाता है, उसके लिए जानने योग्य कोई तत्त्व बाकी नहीं रहता। फिर वह सब प्रकार से (प्रत्येक वृत्ति और क्रिया से) मेरा ही भजन करता है; क्योंकि उसकी दृष्टि में क मेरे सिवाय दूसरा कोई होता ही नहीं।
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