सहज गीता -रामसुखदास पृ. 83

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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पंद्रहवाँ अध्याय

(पुरुषोत्तम योग)

इस संसार में क्षर (नाशवान्, जड़) और अक्षर (अविनाशी, चेतन)- ये दो प्रकार के ही पुरुष हैं। संपूर्ण प्राणियों के शरीर ‘क्षर’ और जीवात्मा ‘अक्षर’ कहा जता है। इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो ‘परमात्मा’ नाम से कहा गया है। वे अविनाशी परमात्मा ही तीनों लोकों में प्रवेश करके संपूर्ण प्राणियों का भरण-पोषण करते हैं। वह उत्तम पुरुष परमात्मा मैं (साकाररूप से प्रकट श्रीकृष्ण) ही हूँ। कारण कि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिए पुराण, स्मृति आदि शास्त्रों में तथा वेदों में मैं ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हूँ। हे भारत! इस प्रकार जो मोहरहित भक्त मुझे ‘पुरुषोत्तम’ जानकर मेरे सम्मुख हो जाता है, उसके लिए जानने योग्य कोई तत्त्व बाकी नहीं रहता। फिर वह सब प्रकार से (प्रत्येक वृत्ति और क्रिया से) मेरा ही भजन करता है; क्योंकि उसकी दृष्टि में क मेरे सिवाय दूसरा कोई होता ही नहीं।
हे निष्पाप (दोषदृष्टि से रहित) अर्जुन! इस प्रकार मैंने तुमसे जो अत्यंत गोपनीय शास्त्र कहा है, इसे जो जान लेता है, उसके लिए कुछ भी जानना, करना और पाना बाकी नहीं रहता। उसका मनुष्य जीवन सफल हो जाता है।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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