सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
पंद्रहवाँ अध्याय(पुरुषोत्तम योग)इस संसार में जीव बना हुआ यह आत्मा (जीवात्मा) सदा से मेरा ही अंश है। अतः तत्त्व से यह सदा मुझमें ही स्थित रहता है, मुझसे कभी अलग नहीं हो सकता। परंतु इससे भूल यह होती है कि यह मुझसे विमुख होकर प्रकृति में स्थित मन तथा पाँचों इन्द्रियों को अपना मान लेता है, उनसे अपना संबंध जोड़ लेता है। जैसे वायु इत्र के फोहे से गंध को ग्रहण करके ले जाती है, ऐसे ही शरीर का मालिक बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से मन सहित इन्द्रियों को (सूक्ष्म और कारण शरीर को) ग्रहण करके फिर दूसरे शरीर में चला जाता है। वहाँ वह मन का आश्रय लेकर श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण- इन पाँचों इन्द्रियों के द्वारा क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- इन पाँचों विषयों का रागपूर्वक उपभोग करता है। इस प्रकार शरीर को छोड़कर जाते हुए या दूसरे शरीर में स्थित हुए अथवा विषयों को भोगते हुए भी गुणों से युक्त जीवात्मा वास्तव में स्वरूप से निर्लिप्त ही रहता है- इस रहस्य को अज्ञानी मनुष्य नहीं जानते, अपितु ज्ञानरूपी नेत्रों वाले विवेकी पुरुष ही जानते हैं। लगनपूर्वक साधन करने वाले ज्ञानयोगी इस परमात्मतत्त्व का अपने आप में ही अनुभव कर लेते हैं। परंतु जिन्होंने अपना अंतःकरण शुद्ध नहीं किया है अर्थात् जिनके अंतःकरण में सांसारिक भोग व संग्रह का महत्त्व बना हुआ है, ऐसे अविवेकी मनुष्य साधन करने पर भी इस तत्त्व का अनुभव नहीं करते। |
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- ↑ यहाँ ‘सोम’ शब्द चंद्रलोक का वाचक है, जो सूर्य से भी ऊपर है। नेत्रों से हमें जो दीखता है, वह चंद्रमण्डल है, चंद्रलोक नहीं।
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