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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
प्रथमं शतकम्
प्रेमोत्कण्ठा से (श्री वृन्दावन की) चिन्ता कर, विलुण्ठन के लिये सर्वांगों का नियोग कर, इस (भौतिक) देह को समर्पण कर सुदृढ़ प्रेम के समाश्रित हो, श्री राधा-नागर की उपासना कर श्री धाम के स्थावर-जंगम प्राणि मात्र को सन्तुष्ट कर-इसी प्रकार सर्वश्रेष्ठ श्री वृन्दावन का ही कायमनो वाक्य से आश्रय ग्रहण कर।।5।।
श्री वृन्दावन की महिमा वेदान्त-समूह मुख से (मुख्यावृत्ति से) प्रतिपादन न करें तो मेरा क्या? शास्त्र रूप गत्र्त में गिरे हुए कुतार्किक गण यदि श्री वृन्दावन का सम्मान न करें, तो इससे मेरी हानि क्या? एवं इस श्री धाम का माहात्म्य भगवद्-भक्तों के अनुभव-गोचर न हो, तो भी मेरा क्या? किन्तु मेरा शरीर सहस्र व्रजों के द्वारा छेदित-भेदित सा होकर भी श्री वृन्दावन से अन्यत्र किञ्चित् मात्र चालित न हो।।6।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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