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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
दशमं शतकम्
मोहन श्रीवृन्दावन भूमि में मोहन श्रीब्रजेन्द्रनन्दन के तथा वृषभानुदुलारी के मोहन से अति सुमोहन रूप, कांति, लीला आदि सर्वदा ही मेरे मन में स्फुरित हों।।21।।
निकुंजविहारी के आश्चर्य नवीन वयसयुक्त, शोभा, रूपविलासादि मण्डित अति मधुर गौरश्याम युगल किशोर मेरे हृदय में स्फुरित हों।।22।।
कोटिक चन्द्रप्रभा का तिरस्कार करने वाले प्रफुल्लित स्वर्णकोष में प्रस्फुटित नीलकमल की शोभा सौभाग्य को घारण करने वाले श्रीराधामाधव के वदन-कमल से निकले हुए सुशीतल तथा मधुरतर प्रभावयुक्त अमृत-वाक्यों का पान करके जो ललितादि सखीगण मत्त हो रही है, मैं नित्य उनका भजन करता हूँ।।23।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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