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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
दशमं शतकम्
पतित, अनाथ, मूढ़, दीन तथा एकमात्र दुश्चेष्टाओं में संलग्न मुझको क्यों श्रीवृन्दावन श्रीराधाचरण से दूर रख रहा है, मैं यह नहीं जानता।।15।।
अत्यन्त कुमति, अति उच्छृंखल तथा अति शोचनीय अवस्था को प्राप्त हुए मुझको श्रीवृन्दावन ही अपनी अद्भुत कृपा से अपना लें।।16।।
वे महाद्भुत कामैकरसमग्न सुगौर नीलवर्ण श्रीवृन्दावन-नागर युगलकिशोर मेरे हृदय से लगे रहें।।17।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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