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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
दशमं शतकम्
श्रीराधा जी की उस वयस ने, उन नवीन मद-कलाओं ने, कुटिल-कटाक्षों ने एवं लीलामय अंगभंगिमादि के सहित उस नव-नव अंग शोभा ने तथा श्री, लज्जा, विलास हास्यादि, प्रेमानन्द की मूर्च्छि प्रदानकारी अति महागौरवर्ण सुस्निग्ध कांतिराशि ने और माधुर्य सारगय श्रीवृन्दावन की वस्तुओं ने मेरे हृदय को चुरा लिया हैं।।8।।
श्रीवृन्दावन के अनुभव (रत्यादि-सूचक गुण-क्रियादि) से किसी भी प्रकार बिन्दुमात्र विचलित न होकर ऐक्यभावाविष्ट मेरा चित्त उज्ज्वल रस में मत होकर, रूपलीला-माधुर्य तथा सुषमादि के सुन्दर गौरवर्ण-विशिष्ट असीम-सिंन्धु, तथा श्रीकृष्ण की आत्मैक-चोर, ललित-नववयस के (शंगारज हावभाव) विभ्रमयुक्त श्रीराधा जी के प्रति अंग में कब निमग्न होगा।।9।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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