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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
नवमं शतकम्
हे श्रीवृन्दावन! अति दुर्लभ पद (धाम) में वास करने की मेरी आशा है, किन्तु सब इन्द्रियों के शत्रु होने से वह भी मेरे लिए अति कठिन हो रहा है, हाय! मेरी क्या गति होगी।।16।।
मुझे कोटि नरक भोगने पड़े, मनोरथों की प्राप्ति न हो, अथवा ईश्वर मुझ पर दया न करें, किन्तु श्रीराधा-चरण-कमलों में मेरी लालसा कभी कम न हो।।17।।
श्रीवृन्दावन में भ्रमण करते हुए मनोहर अंगी श्रीराधा जी के नूपुरों की मनोहर-ध्वनियुक्त चरणों की शोभा श्रीहरि के मन एवं नेत्रों को भी लुभाने वाली है, वही मेरे प्रेमातुर हृदय में स्फुरित हो ।।18।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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