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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
अष्टमं शतकम्
स्वात्मारामेश्वर श्रीहरि के बिना त्रिभुवन में ऐसा और कौन सुर श्रेष्ठ व मुनि श्रेष्ठ है, जो स्त्री के भावों में मुग्ध नहीं होता है इसलिए इस स्त्री से अत्यन्त सावधानी पूर्वक दूर रह कर जिह्वा तथा उपस्थ को जीत कर श्रीवृन्दावन में वास कर।।95।।
महा पापचार, नित्य महा दुर्मति-परायण महा काम-क्रोध आदि में बंधा हुआ, दम्भ-प्रकृति खोटे संग करने वाला, एवं महान धर्म के विमुख होते हुए भी हे वृन्दावन! मैं आपकी अनन्य शरण हूं, आप मुझ पर कृपा कीजिए।।96।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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