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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
व्रजविभूति श्रीश्यामदास
‘श्रीश्यामलाल हकीम’
बंगला भाषा: श्री चैतन्य साहित्य
आज यदि उसे हिन्दी में उपलब्ध न कराया गया होता तो हिन्दी समाज एक बहुत बड़े आनन्द एवं कल्याणकारी निधि से वंचित ही रह गया होता। कहना न होगा कि इतना बड़ा दुर्लभ कार्य प्रभुकृपा से अकेले एक व्यक्ति ने ही किया। इस सत्कार्य में अनेक सहयोगी सदैव उनसे जुड़ते रहे। आज भी देश-विदेश के कोने-कोने से सन्त हृदय सज्जन येन-केन-प्रकारेण इस सत्शास्त्र के संरक्षण एवं प्रकाशन यज्ञ में अपना योगदान कर रहे हैं। लुप्त हो जाने वाले लगभग 100 छोटे-बड़े ग्रन्थों का संरक्षण, प्रकाशन, प्रबन्धन, जन साधारण के लिए इन सत्शास्त्र रूपी सन्त-वचनामृत की उपलब्धि कोई सामान्य-छोटा या सरल कार्य नहीं है। लेकिन प्रभु-गुरु-प्रदत्त दिव्य कृपा-प्रेरणा-शक्ति एवं सन्त सज्जन पुरुषों के यथा योग्य योगदान से ही यह सब संभव हो सका है। ‘ग्रन्थ प्रभु के विग्रह हैं’ - इनकी सेवा प्रभु की साक्षात् सेवा है। सत्यशास्त्र की सेवा साक्षात स्थायी सन्त-सेवा है। जिस प्रकार भोजन पेट की खुराक है - उसी प्रकार ग्रन्थ आत्मा की खुराक है। इनका अध्ययन सदैव के लिए दिव्य आनन्द की अनुभूति प्रदान करता है। श्री हरिनाम प्रेस की स्थापनाउस समय वृन्दावन में प्रेसें नहीं के बराबर थीं। आपने मन ही मन निर्णय कर लिया कि अब अगला ग्रन्थ अपनी ही प्रेस में छापूँगा। और यह सोचकर कि मैं चिकित्सा-कार्य करता रहूँगा और प्रेस में मेरे ग्रन्थ छपते रहेंगें, आपने सन् 1969 में श्री हरिनाम प्रेस की स्थापना की। और हुआ भी यही कि 2-3 वर्ष तक आप चिकित्सा करते रहे और प्रेस में अपने ही ग्रन्थ छपते रहे। बाद में प्रेसों के अभाव, अव्यवस्था के कारण दूसरे ग्रन्थों का मुद्रण-कार्य भी होने लगा। आपके ग्रन्थों के मुद्रण के साथ-साथ अन्य मुद्रण कार्य भी चलते रहे, और श्री हरिनाम प्रेस ने अपनी एक अलग पहचान स्थापित की। सन् 1978-79 में प्रेस का कार्य अपने पुत्रद्वय डाॅ. गिरिराज कृष्ण एवं डाॅ. भागवत कृष्ण नांगिया को धीरे-धीरे सौंपते हुए आपने व्यावसायिक व्यस्तता से विदा ली। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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