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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
अष्टमं शतकम्
वह श्रीराधा की चरण कमल सेवा के व्यतीत और कोई वासना काभी भी नहीं करती एवं श्रीराधा के अपार प्रीति सुख-समुद्र में नित्य निमग्न रहती है।।34।।
श्रीराधा पादपद्म के सिवाय स्वप्न में भी वह और कुछस नहीं जानती एवं श्रीराधा के सहित सम्बन्ध रूम प्रेम की तरंगों में वह प्लावित हो रही हैं।।35।।
वह निखिल जगत् को महा विस्मय करने वाले कैशोर-रूप युक्त है एवं प्रतिक्षण ही रसास्वाद में पुलकित हो रही है।।36।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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